बुधवार, 26 अक्टूबर 2022

तुम ऐसे मिलना

मेरे बच्चों , जब भी मिलना , कुछ ऐसे मिलना 

जैसे बिछड़ी हुई डालियाँ तने से मिलें 

ये जान लो कि रिश्तों की गर्मी भी हमें चलाती है 

ये वो शय है जो बाज़ार में बिकती नहीं , न ख़रीदने से मिले 


जड़ों को सींचोगे तो रहोगे हरे-भरे 

थक के बैठोगे तो यही छाँव सहलायेगी तुम्हारी शिकनें 

कर लो रौशन , कर लो रौशन अपनी दुनिया 

ये उजाले न फिर ढूँढने से मिलें 


इक बूटा लगाया है , छाँव की दरकार मुझे 

तुम इस तरह मिलना के जैसे रूह रूह से मिले 

कामना की अँधी दौड़ में , भूल न जाना खुद को ही 

जब भी मिलो इस तरह मिलना के जैसे अपने-आप से मिले 

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

' माँ '

' माँ ' पर कविता

ज़िन्दगी भर बचपन बोला करता

यादों की क्यारी में माँ का चेहरा ही डोला करता

भूले वो माँ की गोदी , आराम की वो माया सी

जीवन की धूप में घनी छाया सी

पकड़ के उँगली जो सिखाती हमको , जीवन की डगर पर चलना

हाय अद्भुत है वो खजाना , वो ममता का पलना

गीले बिस्तर पर सो जाती , और शिकायत एक नहीं

चौबीस घंटे वो पहरे पर , अपने लिये पल शेष नहीं

होता है कोई ऐसा रिश्ता भी , भला कोई भूले से

छू ले जैसे ठण्डी हवा , जीवन की तपन में हौले से

मन भूलता है वो महक माँ के आँचल की

वो स्वाद माँ की उँगलियों का

जीवन भर साथ चले जैसे , उजली उजली

दुआ ही दुआ , विष्वास बनी वो फ़रिश्ता सी