इसी खिड़की से बाहर देख-देख कर ,
कितना मैंने अन्दर झाँका
हिलती धरती , पाँव बहकते ,
एक फलक मैंने अन्दर टाँका
ऊँचे पहाड़ों से घिरी झील है
बहती नावें , महज़ दृश्य है
नजर ही भरती रँग नज़ारों में
लेखनी ने ये जग से बाँटा
ले जायें किस मोड़ पे ये
दृश्यों को कब टिकते पाया
रिश्तों तक को रँग बदलते पाया
झोली में जो शेष रहेगा
ज़िन्दगी ने वो खुद से छाँटा
मन के आँगन में एक है खिड़की
धूप कभी सहला जाती है
छाया का मन बहला जाती है
राहों में गर फूल खिले हों
कौन भला चुनता है काँटा