बुधवार, 31 दिसंबर 2008

नया साल कुछ ऐसे आये


Happy New Year-2009

नया साल कुछ ऐसे आये , उग आये इक फल का बूटा
हर चौबारे , हर घर में , रह जाये कोई आँगन छूटा

फूल हों विशवास सरीखे , फल हों आशीर्वाद
वाह-वाह निकले मुहँ से और दिन की हो शुरुवाद

डालें जब उमंगें झूला , शाखों का लेकर साथ
बारात लिये सतरंगी किरणें , जाएँ लेकर हाथों में हाथ

पड़ते ही नजर बूटे पर , कुछ ऐसी हो बरसात
तन मन रँग कर , ओढ़ ओढ़नी निकला हो जज्बात

अंकुर फूटें रिश्तों के बीज से , ऐसा हो विशवास
फूलें फलें मेहनत के दम पर , हो रग रग में उल्लास



सोमवार, 29 दिसंबर 2008

गुलाल ही पी , गुलाल ही जी

क्यों खाए बैठा है मलाल
क्यों भूले बैठा है गुलाल
गुलाल ही पी, गुलाल ही जी

किस किस का रखेगा हिसाब
खोल तू अपने पँखों की किताब

कितनो को ढक सकते हैं ये
कितना फासला तय कर सकते हैं ये

हिम्मत का डग भरती उड़ान
नस नस में रँग भरती उड़ान

कितनी ऊँचाई तय कर सकती उड़ान
गुलाल ही पी , गुलाल ही जी

रविवार, 28 दिसंबर 2008

कद

लोग पहचानते हैं सिर्फ़ कद को
चाहे वो ठूँठ ही हो , छाया का दम भरते हैं
आंखों पर चश्में चढा , जग को देखा करते हैं
आदमी आदमी न रहा , हवा को देखा करते हैं
अपने ही मूल्यों को , क्यों कर ये नकारा करते हैं
वो हरियाली , जो मनों से मिला करती है
नजर अंदाज़ की , जिससे फूल खिला करते हैं
कहने को वक़्त के साथ साथ चला करते हैं
क़द परछाईं हो जैसे , दिन रात साथ चला करते हैं
क़द घुल जाता है तो ,खुशबू को भी प्यार आता है
हरियाली छा जाती , ठूंठों पे भी बौर आता है

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

आंतकवाद की रोकथाम कैसे हो

केवल सिर काटने से रावण नहीं मरेगा , उसे मारना है , तो उसकी नाभि में तीर मारिये | समस्यायें ख़त्म करनी हैं तो सिर्फ़ लक्षणों का उपचार करने से काम नहीं चलेगा , बीमारी की जड़ को ही मिटाना होगा | ये कहना है शिव खेड़ा , इंटरनॅशनल मोटिवेटर का | सवाल ये उठता है आंतकवाद पैदा कहाँ हुआ , मस्तिष्क में या धड़ में | इंसान भावना प्रधान जिन्दगी जीता है , यानि दिल ही दिमाग पर राज करता है ; तो मेरी नजर में दिल का बदलाव आवश्यक है | ये काम लेखक लोग बखूबी कर सकते हैं |
आंतकवाद की रोकथाम कैसे हो
ये मिलेगा जहाँ ये पैदा हुआ
इंसान का दिल ही तो है मिट्टी इसकी
रगों में फलता फूलता जहर इसका
दुःख , जिल्लत की जिन्दगी से उपजा है जो
ग़लत दिशाओं को पनपा है ये
इलाज इसका नहीं दवाओं में
राहत होगी टूटे दिल की दुआओं में
जो लुटायेगा वही पलट के येगा
कुदरत के नियम कौन बदल पायेगा
खुशी देने से खुशी मिलती है
उसके लबों को मुस्कान देकर
तेरे गम हवा हो जायेंगे
मिसाल बनना ही है तो
जीवन दाता की बन
जिन्दगी से बढ़ कर न्यामत नहीं है
मुस्कानों से बढ़ कर इबादत नहीं है
इबादत कभी बगावत नहीं होती
इक लम्हा लगता है राह चुनने में
चुन सकता है सुंदर जिन्दगी की राहें
मजबूरी ,बेचारगी का रोना रो
यही वक़्त है ग़मों की साजिश को पहचानने का
भारी रूहों से इबादत नहीं होती

कितने आँसू , कितना लहू
कीमत है तेरी
पेट लहू से नोटों से भरता है
ये भरता है सब्र की मुस्कानों से
ये तुझ पर है कि फूल बन खिल रेगिस्तानों में
और पोंछ ले आँसू
इन्सानों के इम्तिहानों में
कुछ ऐसी ही पोस्ट इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है
इंसानी से जज्बों के संग
सड़कों पर बिखरा है लहू
मानवता खून के आँसू रोती है

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

मन का आईना

बीता अन्दर है , लिखा बाहर होता है

बोझ मन पर होता है , छपा चेहरे पर होता है

चेहरा आईना हुआ मन का , लिख ले वही बात जो दिखाना तुझको

मजबूरी , बेचारगी , सदियों से वही बहाना मन का

लकीर-दर-लकीर मन पर उभर आयेगी

पाटने को कोई मिट्टी नजर आयेगी

दो-चार कदम हल्के हो कर चल लो

ख़ुद ही पकड़ लोगे पल्लू , फ़िर कोई बनावट संभाली जायेगी

चाबी है क़दमों में दम भरने की


गम हर मुमकिन कोशिश करता है , हौसले को पस्त करने की

हौसला अटकलें लगाता है , हर हाल में जिन्दा रहने की

एक बूँद हो जैसे भी , दवा और दुआ के फलने की

मौसमों का असर वाजिब है , उम्र की राह पे ढलने को

दिल किसे पकड़े , किसे जकड़े , किसी तर्ज पे चलने को

हौसले को आदत है , दुनिया से जुदा चलने की

सोच के संग हौसले को सी लेना ,

यही चाबी है क़दमों में दम भरने की

रविवार, 21 दिसंबर 2008

शुरुआत में अन्त बताया नहीं करते

ये झरने ,ये नदियाँ , चाँद तारे

ये बच्चे , ये बूढे , आदमी सारे

सब मेरे अपने हैं

तृप्ति है , फ़िर भी क्या पाने को बाकी है

तृप्ति है तो सपना नहीं है

सपने के बिना चला नहीं जाता

कतरे हुए पँखों से उड़ा नहीं जाता

नागफनी के बीज हलक से उतारा नहीं करते

जहन में मरुस्थल कैसे लायें

शुरुआत में अन्त बताया नहीं करते

दोनों तरफ़ खेल का मज़ा बना रहने दो

घुँघरू खनकाए वो , और हम थिरकें

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

ख़ुद के खुदा की तरह

बहुत भीड़ थी डाक्टर , दवाखानों , ज्योतिष संस्थानों पर
मन्दिर , मस्जिद , गिरिजाघरों , और गुरुद्वारों पर

सारे मरीज ढूँढने आए थे रोशनी , आशा की किरणें
अपने अन्दर मनों अँधेरा लेकर

छोटी छोटी मशालें अन्दर ही थीं , रोशन करना ही बाकी था ,
दियासलाई लेकर

कड़ी जोड़नी ही बाकी थी मन और कर्म की ,
सत्यता और सकारात्मकता लेकर

पहली सीढ़ी ही चुनौती थी , बाकी सीढियाँ कदम ख़ुदख़ुद चढ़ लेते ,
चलने की अभ्यस्तता लेकर

जीवन की अबूझी पहेली को सुलझाओ , ताली बजाओ ,
किन्हीं आसान सवालों की तरह

हर दिन को खोलो परत-दर- परत , खुशबुओं में लिपटे ,
किसी लुभावने उपहार की तरह

आशाओं की आशा बनो , विश्वास का परचम बनो ,
दवाओं की दवा , ख़ुद के खुदा की तरह

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

मिल गई थी इसमे आकर , एक बूँद तेरे इश्क की

अठारह से बाईस साल की उम्र में अमृता प्रीतम के उपन्यास पढ़े थे , उनके पात्रों का दर्द मुझसे सहा गया | उसके बाद मैंने उन्हें नहीं पढ़ा | डॉक्टर अनुराग के ब्लॉग में मैंने रंजू भाटिया की पोस्ट की हुई अमृता प्रीतम की कवितायें पढीं , वहीं पढ़ा कि किसी किताब को पढ़ कर हर कोई उस सोच की दो बूँद जरूर ले लेता है , शायद मैंने कच्ची उम्र में दो घूँट उतार लिए थे , एक घूँट पी लिया और दूसरा मेरे गले में ही अटक गया , जो उगला गया निगला गया | पीड़ा जीवन नहीं है , भागना भी जीवन नहीं है , अमृता प्रीतम की पीड़ा कवितायों की शक्ल में जन्मती रही |मुझे इसका निदान मर्यादित होकर सबसे प्रेम करने में नजर आया | ये तो एक कुंजी हो गई. .  किसी के कैसे भी व्यवहार के पीछे कारण स्वरूप परिस्थिति को आप समझ लेते हो तो उससे कैसा रोष ?

उन्हीं के ब्लॉग पर पढ़ कर जाना कि मेरे अवचेतन मन ने अमृता प्रीतम की एक कविता से दो पंक्तियाँ चुराई हुई थीं |कविता हाजिर है

मिल गई थी इसमें आकर
एक बूँद तेरे इश्क की
इसीलिये मैं उम्र की सारी कटुताएँ पी गई
इसीलिये जीवन की सारी विषमताएँ भा गईं

उठते थे कदम जिन राहों पर
सारी अदाएँ गईं
सागर का खारा पानी भी
मिश्री से मिल आया कहीं
बिखर जाने का दर्द भूल कर
सिमट आने का पल ही याद है

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

कटु यादों की गठरी को ढोया नहीं करते

कटु यादों की गठरी को ढोया नहीं करते
दब जातें हैं बोझ तले
जख्मी हो जाते हैं पाँव , चला नहीं जाता
चकाचक आईना हो जा
जो है सामने है , जो है यही है
इतरा ले इसी पर
आईने गठरियाँ ढोया नहीं करते
आईने सपने भी सँजोया नहीं करते
थ्री () डायमेंशनल होना होगा
मैं , मेरे वाले से अलग
पहुँच के अन्दर , तस्वीर का हर आयाम दिखाना होगा
किसके अस्तित्व को क्या जरुरी है , तू खूब जानता है
किसी के अह की संतुष्टि की खातिर तू बदलेगा नियम
आईने की फितरत है वो हूबहू दिखाता है
मजबूरी , बेचारगी का रोना रोया नहीं करते
कटु यादों की गठरी को ढोया नहीं करते



मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

वहाँ जाया नहीं करते


जहाँ वक़्त बोझिल हो , कटता न हो
सुनाई देती हो घड़ी की टिकटिक
वहाँ जाया नहीं करते

जहाँ अपनत्व की उमंग न हो
घर खुला हो ,
दिल की खिड़की न खुली हो
वहाँ जाया नहीं करते

कदम भारी हों ,
पड़ाव हो रास्ते में फ़िर भी
दरवाजा खटखटाया नहीं करते

न कोई धन दौलत ,न कोई भेद पाना है
जिसे तकती हैं मेरी निगाहें ,उससे तू खाली है
बुला लेना तुझे जब भी , मेरी जरुरत हो
वक़्त की कीमत जाननी होगी
यूँ वक़्त को ज़ाया नहीं करते

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

खुदा

कोई पढ़ ले , चुरा ले या जिन्दगी में उतार ले
इसी में सार्थकता है लेखन की

खुदा

मेरे पिता का दिल है सबसे बड़ा

ख्याल है उसको सदा , जब जब कोई अकेला पड़ा
पुकारों में वो जगमगा गया , लगा वो आया खड़ा

मेरे पिता का परिवार है सबसे बड़ा

किससे है शिकवा और क्यों गिला , गहरा कहीं रिश्ता बड़ा
संस्कार उसके सुखद हैं , रास्ता है ये लंबा बड़ा

मेरे पिता का दिल है कितना बड़ा

उसने ये महंगा सा सौदा कर लिया , हमको तो ये सस्ता पड़ा
तू खुशी से ख्वाब कर , हर मोड़ पर वो होगा खड़ा

मेरे पिता का घर है सबसे बड़ा

नदियाँ ,चाँद-तारे , दुनिया की न्यामतें सजा
भूला है तू चलन , पेंचों में जिन्दगी लड़ा

मेरे पिता का हुक्म है सबसे बड़ा

उसका हुक्म सिर माथे पर , उंगली पकड़ चलाएगा
रास्ता वही बताएगा , कदम जिस ओर तू चाहे बढ़ा

मेरे पिता का दिल है सबसे बड़ा