हादसे क्या जान बूझ कर किए जाते कभी
जायेंगे ये किस हद तक , क्या सोच पाते कभी
अपने लिए ख़ुद ही , कोई कब्र खोदता नहीं
दूसरे के दर्द में , अपना दर्द खोजता नहीं
मत सेंकना तू रोटियाँ , आग जलती है कहीं
लकडियाँ हैं दूसरे की , तूने आगे खिसकाई कहीं
है दर्द उसके सीने में , नहीं है छलावा कोई
इन्सानियत की आँख से , नहीं होता दिखावा कोई
जब ख़ुद पर बीतती है , ठगे से ढूँढते हैं कोई देवदार कहीं
ये क्या लाया है , कर देगा तुझे भी लहुलुहान , झाड़-झंखाड़ कहीं
इन्सानियत के नाम पर , है इंसानियत शर्मिन्दा कहीं
दवाओं को पीते रहे , दुआओं को भूल आए कहीं