बुधवार, 26 अगस्त 2009

कैसे खो दूँ मैं तुझे


एक बड़ी ही प्यारी मित्र ने कुछ ऐसा किया जो हमारे रिश्तों में कडुवाहट घोलने के लिए काफी था | ऐसे वक़्त में कुछ इन पंक्तियों से ख़ुद को समझाया.....
आँसू आ के रुक गया
आँख की कोरों पर 

कैसे नाराज हो जाऊँ
मैं तुझ से गैरों की तरह


दुःख तो होता है
तेरी बेरुखी पर


कैसे खो दूँ मैं तुझे
भीड़ में लोगों की तरह


फूल भी अपनों के मारे हुए
लगते हैं शूलों की तरह


कैसे खो दूँ मैं तुझे
राह में भूलों की तरह


तेरी यादें मुझे यूँ भी
उम्र भर सतायेंगी


कैसे खो दूँ मैं तुझे
गुजरी हुई बातों की तरह

बुधवार, 19 अगस्त 2009

लगती है एक उम्र


इतने कड़वे सचों का सामना करना आसान नहीं है , वास्तविक जिन्दगी में पत्नी के सच बोलने पर नोएडा का एक पति पँखे से लटक गया और एक ने पत्नी के गले पर ब्लेड मार मार कर मारने की कोशिश की | ऐसे सच को बर्दाश्त करना इसीलिये मुश्किल हो गया है क्योंकि इन्सान अपने किए गुनाह को भी गुनाह नहीं समझता और दूसरों से हुई गल्ती को भी गुनाह का दर्जा देता है | किसी तरह भी माफ़ नहीं करता | ऐसे सच बोल कर क्या इनाम पाया ?
दिलों को न तू तोड़ना
बोल देना झूठ भी
है एक अदालत और भी
श्वासों की कद्र कर 


लगती है एक उम्र , आशिआना बनाने में
कैसे कर देगा अपने ही हाथों , तिनका तिनका बिखराने में
सच बोलना है ख़ुद से बोल
न मोल भाव कर


कुछ ऐसे सच हैं अगर
सीख ले , भूल जा वो बेडियाँ
हिल जायेंगी तेरी ईंटें
आँधियों में सँभाल कर


शाश्वत है सत्य जीवन
जिन्दा हैं इनकी रूहें
बोलना तू मीठे बोल से
निवालों को तौल कर
दिलों को न लताड़ना
जीवन की कद्र कर


{' कैसे करें सच का सामना ' भी इसी मुद्दे पर लिखी गई कविता है (इसी ब्लॉग पर )}

सोमवार, 17 अगस्त 2009

मैं कह न पाऊँ अगर ......


मैं कह पाऊँ अगर ......
मेरी मूक जुबाँ समझ लेना
मेरी दुआओं का असर समझ लेना
तेरे आस-पास मन्डराता हुआ , मेरा प्यार जान लेना
तुम नज़रों में बाँध लेते हो
कुछ यूँ वक़्त थाम लेते हो
अपने बारे में भी कुछ जानते हो !
कहने सुनने से बहुत आगे
नज़रों का सँसार हुआ करता है
दिल की जुबानों को तुम समझ लेना
मैं कह पाऊँ अगर .........

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

निरीहों को क्या मालूम

मेले के दिनों में शहर से बाहर निकलते ही देखा कि एक चरवाहा बकरियों को हाँकता हुआ शहर की तरफ़ ला रहा है , पहला ख्याल दिल में यही आया कि ये या तो धर्म के नाम पर बलि चढेंगी या दुकानदारों और होटल वालों को बेची जायेंगी , आख़िर हश्र वही है
अय्यड़ को हाँका है शहर की ओर
निरीहों को क्या मालूम
चलना है सहर की ओर


भेँट चढ़ना है
धर्म का या स्वाद का जोर
खिलाता था , पिलाता था
मण्डी में बोली लगाता था
खून सने हाथ
सफाई पसन्द हैं
ताने-बाने बुनते दिमाग
पाक हैं , सलीका पसन्द हैं


कब्रिस्तानों से पेट
अटे हैं अपनी वफाओं से
आदमी के मुँह खून लगा
जँगल हो या शहर
एक ही बात है
निरीहों को क्या मालूम
चलना है सहर की ओर



सोमवार, 3 अगस्त 2009

एक किरण आशा की




एक किरण आशा की , सपने हजार लाती है
डूबे हों कितने भी , पल में उबार लाती है



.तिनका-तिनका बिखरे हों , जमीं से उखड़े हों
राहगुजर दिखलाती , एक किरण आशा की
मन्डराते बादलों से पँख उधार लाती है
डूबे हों कितने भी , पल में उबार लाती है


२.बादलों से गुजरे हों ,रँग सब बिखरे हों
खुशबू की तूलिका सी , एक किरण आशा की
सुरमई सपनों के मन्जर उतार लाती है
डूबे हों कितने भी , पल में उबार लाती है



3.तिनकों सा जुड़ती है , हवाओं में घुलती है
सुबह सी सतरंगी ,एक किरण आशा की
दस्तक देते ही सूरज उतार लाती है
डूबे हों कितने भी , पल में उबार लाती है