आज साँझ जब उतरो चन्दा नील गगन में
सारी खुशियाँ भर लाना अपने दामन में
कितनी आँखें लगी हुईं हैं , राह तुम्हारी देख रही हैं
एक नहीं मैं ही ये माँगूं , हाथ उठे हैं कितने दुआ में
पिया गए परदेस भले हों , उनकी खबर तुम ले आना
महक उठे ये घर-अँगना , करते बातें लम्हे कानों में
चन्दा से चन्दा की बातें , मनुहार है सारी उसी पिया की
सज कर तुमसे मिलने आते , भेद है क्या इस बतियाने में
प्यार सिँगार है , दुनिया में सबसे सस्ता
दिलबर लेकिन सबसे महँगा , चन्दा ज्यों है तारों में
रविवार, 25 दिसंबर 2011
आज साँझ जब
गुरुवार, 8 दिसंबर 2011
गुलाबों सा खिलो
फूलों पे चलो
खुशबू में पलो
दुनिया है तुम्हारी
गुलाबों सा खिलो
आसमाँ तो है कितना बड़ा
उड़ के देखो
रहती दुनिया के
चाँद सितारों से मिलो
हसरतें यूँ भी अक्सर
आतीं मन रँगने
नूर के महलों को
सूरज के ठिकानों सा रंगो
मंगलवार, 29 नवंबर 2011
अपने दम पर
वो तो बादल का टुकड़ा भर था
झीनी चदरिया तार-तार हुई
और तपता सूरज सर पर था
भरमों के बिना जीवन कैसा
अरमाँ का अपना भी कोई घर था
उम्रों से निरास निहाल हुई
अपनी कश्ती में कोई पर था
मिलते ही जगह भरने लगता
इक वहम का ऐसा भी सर था
टूटे जितना हम जुड़े मिले
चलना जो अपने दम पर था
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
उम्मीद के सूखे पत्ते
हाथ में आ जाएँ जो थोड़े इक्के
सलाम ठोकते हैं सारे पत्ते
उम्मीद के सूखे पत्ते
मय ज़र्द चेहरों के
बड़े बेमन से किये हैं अलग
ज़मीं गीली है अभी
मगर वो आबो-हवा नहीं है
रोज़ घटता बढ़ता है
उम्मीद का साया भी
चन्दा की ही तरह
कौन सी चीज है
जो अमर होती है
एक हमको ही न आया हुनर
ज़माने के साथ चलने का
या तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया जा रही है
किसी और ही राह ...
कहने जो गये हम
तो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा
सोमवार, 14 नवंबर 2011
टिम टिम करते तारे
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
तुम्हारे जाने से
बच्चों के घर में कुछ दिन बिता कर जाने के बाद एक अजीब सी ख़ामोशी छा जाती है , जिसे शब्द दे पाना नामुमकिन सा है ...
तुम्हारे जाने से यूँ लगता है
बहार आने से पहले चली गई शायद
कौन जगायेगा मुझे नीँद से उँगली पकड़
कौन चलेगा मेरे साथ साथ शामो-सहर
स्याही बन कर वही बात कागज़ पर चली आई है
इक चुप सी लगी है , ये रुत दूर तलक छाई है
मुँह बिचकाती हुई घर की दीवारें हैं
समझाते हुए खुद को इक उम्र गुजरी है
उड़ना है बहुत दूर तक तुम्हारे पँखों से
नीँद आती भी नहीं , जगी भी नहीं हूँ
सारे सपने तुम साथ ले कर गए
तुम्हारे साथ था ये दिल लगा हुआ
और अब , दिल लगाना पड़ता है
सोमवार, 24 अक्टूबर 2011
उसकी आँखों में दिवाली उतर आई होगी
अपनी कीमत उसने खुद ही , कमतर आँक ली होगी
क्या दिया तुमने जो दिया ,
हक़ उसी का था , चीज अपनी ही माँग ली होगी
तोड़ो न दिल , कौन जाने
किस दुआ में खुदाई उतर आई होगी
कोई एक दिल भी रौशन जो किया
कौन जाने उसकी आँखों में दिवाली उतर आई होगी
गैर नहीं है वो ,
अपना समझा तो दूर तलक हरियाली होगी ....
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
हालात के हाथों में
जिन्दगी ये भी है कैसी गुलामी अपनी
कौन साबुत है बचा वक्त के हाथों से
सुहाने पल भी हैं सुनामी अपनी
ख़्वाबों के बिना जिन्दगी का ठौर-ठिकाना ही नहीं
न देखें इन्हें तो ये भी है खराबी अपनी
मुँह मोड़ के चल देते हैं जब जब हम
गुलशन की नजर में होती ये खामी अपनी
चिकने घड़ों से पूछो कैसे रखे हो ठण्ड
धुँधली है नजर टूटी है कमानी अपनी
मुश्किलें डाल डाल हौसला पात पात
जिन्दगी ये भी है चाल जवाबी अपनी
बुधवार, 28 सितंबर 2011
यूँ दूर के चन्दा हो
सारी बातेँ न पहुँचतीं तुझ तक
मेरी सदायें लौट आतीं मुझ तक
चाँदनी रात का भरम ही सही
तेरा इतना सा करम ही सही
है आसमाँ तो अँधेरा बहुत
चाँद के साथ सारे तारे आते हैं निकल
मेरा तारों से कोई गिला ही नहीं
जिन्दा रहे ये आस के तू है सामने
मेरी हर राह पहुँचती तुझ तक
नजर के सामने तू है
काफी है मेरी पलकों पे उजालों की तरह
मेरी राह में तेरे क़दमों के निशानों की तरह
यूँ दूर के चन्दा हो
रविवार, 18 सितंबर 2011
चमकीला होता है अम्बर क्या
वो दिन कैसा होता है
अरमान की बिंदिया माथे सजा
जब रोज सुबह कोई गाता है
चमकीला होता है अम्बर क्या
मेरी उम्मीदों से ज्यादा
वो लाली , वो गुन्जन
वो फूँक भला कौन भरता है
खिल उठते हैं फूल सभी
चिड़ियाँ भी गातीं मस्ती में
निशा के सँग सो जाते
वो समझ भला कौन भरता है
वो महक भला आती कैसे
बेचैनी सी हो रूहों में
सतरंगी किरणों के द्वारे
कौन रँग प्याली में भरता है
पलकें बिछती हैं राहों पर
सिर झुकता है सजदे में
उतरा न उतरा वही लम्हा
जो मन के फलक को भरता है
बुधवार, 7 सितंबर 2011
ये जो सामान रखा है
ये जो सामान रखा है
कितना लहू , कितने चिथड़े हुए अरमान का है
जीवन तो वैसे भी पानी का बुलबुला
ज़रा सी ठेस लगी
बिखरा तो समेटा ही नहीं जाता
सूली पे टंगे हुए अरमान का है
ये जो सामान रखा है
लिखने चला है किस्मतें
रातों की नींद ले जायेंगी , सलीबें सारी
कोई पढ़ेगा फातिहा , कोई दुआ करेगा
इनमें अब भी है कोई आदमी सा बचा
कितनी चीखें , बिलखती यादें ,
तड़पते हुए इन्सान का है
ये जो सामान रखा है
हम छोटी छोटी बातों पर रो देते
टूटे हैं वादे , रूठी है जिन्दगी ,
उडीं हैं छतें
कहर ढाते हुए आसमान का है
ये जो सामान रखा है
आवाज हूँ मैं तेरे सीने की
कितना बारूद , बीमार है मन
धुआँ धुआँ हुए जमीर सा
सुनता ही नहीं तू
किस मिट्टी , किस कान का है
ये जो सामान रखा है
रविवार, 28 अगस्त 2011
पानी भूल आए घर
पत्थरों से उलझ कर भी साबुत हूँ मैं
जिन्दगी यूँ कोई गीत , गुनगुनाती रही
तप रहा आसमाँ , राह तपती हुई
मँजिल यूँ मुझे बुलाती लगे
मेरे सिर पर धूप , कुनकुनाती रही
रेगिस्तानों की है यही खासियत
हर कोई तन्हा , अपने दम पर चले
पानी भूल आए घर , प्यास भुनभुनाती रही
समन्दर किनारे पहुँच कर भी तो
रेत तलियों की लहरें ले जाएँ घर
समन्दर हो के सहराँ ,
अपने हिस्से की छाया , कुनमुनाती रही
बुधवार, 17 अगस्त 2011
अन्ना हैं एक मशाल
पीड़ा है सबके उर में
जिसकी है ये आवाज
अन्ना हैं एक मशाल
लेकर चले जो सबको साथ
मिटे जड़ से भ्रष्टाचार
हर खास आदमी आम
है आम आदमी ख़ास
क्यों कर हो कोई शिकार
महँगाई , बेरोजगारी
दिशाहीन है अपना समाज
लाठी है किसके हाथ
है नैतिकता क्यों नहीं ढाल
इतिहास ऋणी है उनका
औरों के लिये जो जीते
होते हैं कलमबद्ध वे ही
चलते हैं जो सीना तान
अन्ना हैं युग पुरुष
समय सीमा से परे
है दाँव पे जीवन उनका
गाँधी जी सी हैं मिसाल
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
कैसे करूँ पर्बत को राई
पल में तोला पल में माशा
कैसे करूँ पर्बत को राई
अपनी फितरत देख तमाशा
दिल अपना और प्रीत पराई
दर्द की अपनी ये ही भाषा
छोड़ चला कोई राजाई
किसी का खेल किसी की आशा
मन्जर गर नहीं सुखदाई
बातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
दुखती रगें भी तो दवाई
साथी कभी , है प्रेरणा निराशा
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
माँ
जिन्दगी भर बचपन बोला करता
यादों की क्यारी में माँ का चेहरा ही डोला करता
न भूले वो माँ की गोदी , आराम की वो माया सी
जीवन की धूप में घनी छाया सी
पकड़ के उँगली जो सिखाती हमको , जीवन की डगर पर चलना
हाय अद्भुत है वो खजाना , वो ममता का पलना
गीले बिस्तर पर सो जाती , और शिकायत एक नहीं
चौबीस घंटे वो पहरे पर , अपने लिये पल शेष नहीं
होता है कोई ऐसा रिश्ता भी , भला कोई भूले से
छू ले जैसे ठण्डी हवा , जीवन की तपन में हौले से
न मन भूलता है वो महक माँ के आँचल की
न वो स्वाद माँ की उँगलियों का
जीवन भर साथ चले जैसे , उजली उजली
दुआ ही दुआ , विष्वास बनी वो फ़रिश्ता सी
आठ मई मदर्ज डे पर एक कविता माँ के लिये लिखी थी , उसका लिंक है ...माँ ...इसी पेज पर नीचे ...
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
चेहरा कैसा है दहशत का
चेहरा कैसा है दहशत का
मोहरा हो जैसे वहशत का
चुभते चीखते से मंजर
पकडे हैं हाथों में खंजर
सबके घर शीशे के ही हैं
फिर पत्थर क्यूं कर उठाए हैं
चेहरे थे जो सलोने से
तोड़े हैं देखो खिलौने से
काम खुदा का कर डाला
भेजा है थोक में इक झाला
कोई टूटा जोड़ दिखाए न
कोई उधड़ा सिल के बताये न
खुद को ही जो छल बैठे हैं
खुदी से आइना छुपाये हैं
सोमवार, 4 जुलाई 2011
जिन्दगी सी मिठास
बड़ी सफाई से बीनना होगा
रेत के कण फिर भी साथ साथ लिपट आयेंगे
प्रेम के पानी से जुदा करना होगा
काम की बात उठा
भ्रमों में न पड़ना होगा
जिन्दगी खेल नहीं है फिर भी
खेल सा मजा लेना होगा
वक्त के साथ बहते हुए
वक्त से पार पाना होगा
जितना कुछ है मिला
उसे हर हाल सजाना होगा
अनुपयोगी बातेँ हैं रेत सी
बाधाओं को न बुलाना होगा
तरल बन कर रगों में घुलती
जिन्दगी सी मिठास को पाना होगा
मंगलवार, 28 जून 2011
जब वो गुलशन से मुँह मोड़ लेता है
खाते हैं , पीते हैं , इबादत भी करते हैं
उम्मीद अब मुरझाने लगी है
गम कोई खाने लगी है
इंतज़ार को बहलाने के लिये शब्द कम पड़ने लगे हैं
नीँद आँखों से कोसों दूर
सपने माँगते मुआवज़ा
बीज बोये , अम्बर ओढ़ाए
मेहरबानियों ने मुँह मोड़ा
आदमी वक्त से पहले मर जाता है
जब वो गुलशन से मुँह मोड़ लेता है
चाँद-सितारे , धरती-अम्बर , बहारें सारे
हो जाते हैं बेमायने
रँग सारे कौन चुरा ले गया
नूर के वो शामियाने कहाँ गए
पलट दे जो तू दो-चार सफ्हे
मैं इन वरकों को भुला दूँ
न आये हों जैसे ये दिन भी कभी
गम के सारे अहसास सुला दूँ
नहीं नाराज नहीं ...
मंगलवार, 21 जून 2011
उम्र को दस्तक देते हुए
डाल पे आम को पकते हुए
और उम्र को दस्तक देते हुए
उल्टी गिनती है लम्हों की
और ज़ार-ज़ार दिल रोते हुए
कुछ वक्त से पहले पक जाते
कुछ कच्चे तोड़ लिये जाते
मुखड़े जो थे अरमान भरे
रँगों के निशाँ हैं खोते हुए
सलवट सलवट जो सोया है
झुर्री झुर्री अरमान बड़े
काटीं हैं सबने वही फसलें
खुशबू के चमन से होते हुए
चाँदी चाँदी है रातों की
और धूप सुनहरी छाया बनी
छत के नीचे कोई तपता नहीं
मँजिल के बहाने बोते हुए
मंगलवार, 14 जून 2011
दम है अपना
बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा
मुँह पर जल के छींटे डाले और सच्चे पातशाह के लिये मन ने गुनगुनाना शुरू किया । शबद की ये तीन पंक्तियाँ मैंने भी चुरा लीं , और उसी लय में गाया ....आवाज भी मेरी है और स्टेंजाज़ भी मेरे हैं ......
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बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा
रूह मेरी को तू नहला दे
जन्मों की मैं मैल मिटा लूँ
गठरी सिर पर बहुत है भारी
रख के किनारे थोड़ा सुस्ता लूँ
बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा
रोग कोई भी थोड़ी देर का साथी
पीड़ से दामन अपना छुड़ा लूँ
बैसाखी नहीं तू , दम है अपना
जब जी चाहे तुझको बुला लूँ
बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा
मंगलवार, 24 मई 2011
जमीं खिसकी तो बने फ़कीर
कभी संध्या कभी सबेर
बस थोड़े से पल लगते
जिन्दगी के हाथों में बटेर
जमीन और आसमाँ के दरमियाँ
एक पतली सी लकीर
जितने भी सपने बुनो
जमीं खिसकी तो बने फ़कीर
धूप और छाया तकते
कच्ची वय के अबीर
जाने कब सो जाता
राह तकते तकते जमीर
शनिवार, 7 मई 2011
माँ
माँ कर्म की प्रतिमूर्ति
माँ छाया
माँ हिफाज़त
माँ इक सहेली
सच्ची हितैषी
सबसे बढ़ कर
जैसे हो अपना आप
माँ आड़
माँ छत
माँ दुआ
ताउम्र चलती साथ
खुशनुमा अहसास सी
माँ चलीं गईं इस दुनिया से , मगर मेरे मन पर जो छाप छोड़ गईं ....
हालात के हाथों हिलीं नहीं
दुक्खों में कभी न डोलीं माँ
कर्तव्य की थीं साक्षात मूर्ति
जीते जी कुछ न भूलीं माँ
स्नेह भरी , ममता से भरी
गुस्से में कभी न बोलीं माँ
अनुशासन वो पिता का था
जिसके रँग में हो लीं माँ
और सहज हो हँस देतीं
ऐसी थीं मेरी भोली माँ
एक न्यामत हो जैसे
अकथ अबूझ पहेली माँ
ऐसी थीं मेरी माँ देखो
रविवार, 1 मई 2011
और युगों सा बीत गये
कितने किनारे टूट गये
एक टाँग पर खड़े रहे हम
देखो हमको चलना आता है
धरती अम्बर रूठ गये
और सहारे छूट गये
रात सा साथी पाया हमने
और युगों सा बीत गये
झिलमिल तारों को देखा है
अपने सितारों को देखा है
बीज तो फूलों के बोते सभी
उगता वही जो किस्मत में बदा है
गढ़ देते हम कितने नगमें
शान में तेरी ऐ मौला
उम्मीद का दामन पकड़े हुए
रात और दिन से छूट गये
शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011
कौन गीतों में उतरेगा , नज्मों में ढलेगा
सावन के अन्धे को दिखता है हरा ही हरा
जेठ के जले को दुपहरी भी लगे बहाने की तरह
मिले हैं कुछ ऐसे रिश्ते भी
साथ चलने को मेहरबानी की तरह
नज्मों में ढलेगा रूहे आसमानी की तरह
ये कमजोरी है या ताकत पहेली की तरह
यादों की क्यारी में जुगनुओं की तरह
इतने अपने हैं कि जिस्म में जाँ की तरह
जिन्दगी के दिलासे , पींगें सावन की तरह
ये रिश्ते हैं या नाते सुरुरों की तरह
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
लगते हैं फूल महकने वो
तेरे नन्हे तकिये पर
क्रोशिये से बनाई तितली
सीने में सहेजी यादों से आते हैं निकल
लगते हैं फूल महकने वो
तितली मँडराने लगती है
तेरे टोपे मोज़े बुनते हुए
जाने कब लड़कपन उड़ है गया
तेरी एक एक याद को रखना चाहा
फिर सोचा , यादों से उलझना ठीक नहीं
बातों में अटकना ठीक नहीं
बाँटीं तेरी कितनी चीजें
फिर भी , तेरी नन्ही रजाई मोतियों वाली , नानी का उपहार
नानी की याद भी बसी जिसमें
तेरा कोट भी एक फर वाला , रख डाला
तेरा नन्हा गोरा गुलाबी मुखड़ा तो
आज भी उसमें आता है नजर
मेरे मन के कोने से झाँकता है वो
फूल वो आकर महकने लगते
तितली मँडराने लगती है
मंगलवार, 29 मार्च 2011
कर्म यज्ञ है आहुति जीवन
एक ईश के बन्दे
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
जात पात के रन्दे
राह सँकरी पहुँचे वहीं
धर्म नहीं हैं फन्दे
कर्म यज्ञ है आहुति जीवन
अपने अपने हैं हन्दे
एक नूर से उपजे हैं सब
कौन भले कौन मन्दे
रन्दे=औजार जिनसे तराशा जाता है
हन्दे =उपभोग से पहले ब्रहामण के लिये निकाला जाने वाला भाग
सोमवार, 14 मार्च 2011
वो जो रोज रोज मरते हैं
वो जो रोज रोज मरते हैं
लम्हा लम्हा , ज़र्रा ज़र्रा
उसका क्या ?
कर्ज मर्ज , दँगा पँगा
नशा वशा , हर्ज तर्ज़
सौ बहाने मौत के
एक बूँद ज़िन्दगी से महरूम
बेकसी , बेचारगी , लाचारगी
कटोरा लिये हाथ में
भीख माँगे उपहारों की
सीने में जँगल झाड़ हैं
भड़के चिन्गारी दावानल सी
टूट फूट , मरम्मत होती सदियों से
निदान उपचार से बेहतर है
दो बूँद जिन्दगी की पिला
अकड़ न जाए मन कहीं
टूट कर मुर्दा हुए या नश्तर बने
जिन्दगी का रस ही आँचल बने
भूल कर भी न ठोकर लगा
सीने में मचलते अरमान हैं
तुझसे ही कई तूफ़ान हैं
दिशा दिखा , दशा बदल
जिन्दगी मेहरबान है
जिन्दगी मेहरबान है
रविवार, 6 मार्च 2011
आकाश को नहीं छोड़ा करते
जिस गली जाना न हो
उसका पता नहीं पूछा करते
सो गए ज्वालामुखी
चिन्गारी को नहीं छेड़ा करते
हश्र तो एक ही होता है
फना हो कर भी , लब पे लाया नहीं करते
मेरे मौला की मर्जी क्या है
हँसते हुओं को रुलाया नहीं करते
वक्त से पहले वक्त के सफ्हे
नहीं पलटा करते
इस लम्हे से पहले उस लम्हे तक
नहीं पहुंचा करते
यूँ बियाबान से नाता
नहीं जोड़ा करते
सूख जाते हैं जड़ों से
जीवन से मुहँ नहीं मोड़ा करते
एक ही बात कही
टूटते हुए तारों ने
टूटे हुए लम्हों की गिनती में
आकाश को नहीं छोड़ा करते
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
बिना शिकन डाले
और तू माथे पे बिना शिकन डाले उसे सँवारे
जो इतना सब्र है तो आगे बढ़
कोई खुदा है तुझे संभाले हुए
कहाँ मुश्किल है कविता करना
मुश्किल है तो बस उसे जीना
कोई डोर है जो आड़े वक्त में भी
टूटने से है उसे बचाए हुए
इम्तिहान तो है तालीम का हिस्सा
और मौका क़ाबलियत दिखाने का
ठुकते पिटते बर्तन को कोई
ठह्कने से है बचाए हुए
देता है खुदा भी थपकियाँ
चाहिए बस पढ़ने को नजर
हिसाब क्यों कर देगा वो
छाया की तरह है जो संभाले हुए
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
और ख़ुशी से नयन सजल
तू जो पकड़ ले हाथ तो
सारे इरादे हों सफल
दिखाए जो तू रास्ता
सारे नतीजे हों अव्वल
बल्लियों उछलता दिल
खिले ज्यों झील में कमल
फूटती पहली किरण
सूरज देखो आए निकल
कलम ही है नवाजती
भविष्य यूँ उज्वल-धवल
हो वीणा-वादिनी का वर
चलना है बस संभल-संभल
माँ की ममता ने घर पाया
आज फिर नूतन नवल
है द्रवित हृदय हमारा
और ख़ुशी से नयन सजल
और कभी मन यूँ गुनगुना उठता ...
आस के फूल महकाए रखना
दिया जला है , जलाए रखना
सुखद भविष्य और साथी मन के
अपने बच्चों को देना
मांगती है एक माँ , दूसरी माँ से
मेरा तो है इतना सा जगत
तू है जग की जननी माँ
इल्तिज़ा मेरी तो है इतनी सी फ़कत
अपने बच्चों के चेहरे पर
मुस्कान सदा बनाए रखना
आस के फूल महकाए रखना
और परिणाम सुखद आया ....
वक्त की मुट्ठी खुली तो लम्हा हाथ आया
सलाम ठोकता हुआ नसीब भी साथ आया
शुक्रगुजार हूँ माँ सरस्वती की , जिसने आज ये दिन है दिखाया .....आप सब के साथ ख़ुशी बाँट रही हूँ ...
बुधवार, 26 जनवरी 2011
पाने को है क्या बाकी
समझेगा , समझायेगा
पाने को है क्या बाकी
क्यों झोली फैलायेगा
अपने जो बड़े अपने
करते तीरों सा घायल हैं
मरहम भी नहीं रखते
रिसते हुए जख्मों पर
तेरा ही नहीं ये तो
हर इक का फ़साना है
दिए को तो जलना है
जलने का ये कायल है
हवा हो या आँधी हो
बाती में नमी रखना
हँसना है तेरे मन को
या जग को हँसाना है
तेरे ही तो टुकड़े हैं
तेरी राहों के मन्जर हैं
इनके बिन क्या है तू
तेरा ही खजाना हैं
बन जायेंगी ये यादें
जीवन को सजाना है
मेरे मन , कैसे तू बतायेगा
समझेगा , समझायेगा
पाने को है क्या बाकी
क्यों झोली फैलायेगा
सोमवार, 17 जनवरी 2011
प्रकृति से दूर
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए
कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों से चहकते हुए
तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
सोमवार, 3 जनवरी 2011
सनद शेष रहे ( नए साल का स्वागत है )
हर लहर कहाँ साहिल पाती
वरना शोर के सिवा न कुछ शेष रहे
बीच भँवर में दम तोड़ती
घुलती कच्चे घड़े की तरह
नामो-निशाँ भी न शेष रहे
मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की
खुदाई में मिले
आदमी की सभ्यता के अवशेष रहे
जब जमीं न हो क़दमों तले
उल्टे लटके हों , नजर के सामने मगर
आसमाँ शेष रहे
सामाँ तो बंधा सबका है
युग के सीने पर आदमी के हस्ताक्षर
सनद शेष रहे
बीते हुए साल की छाप लिये
कुछ ऐसा कर गुजर जाएँ
मानवता का सिर ऊँचा हो
पीढ़ियों तक सनद शेष रहे
नए साल का स्वागत है
नए साल का स्वागत है