रविवार, 25 दिसंबर 2011

आज साँझ जब

आज साँझ जब उतरो चन्दा नील गगन में
सारी खुशियाँ भर लाना अपने दामन में

कितनी आँखें लगी हुईं हैं , राह तुम्हारी देख रही हैं
एक नहीं मैं ही ये माँगूं , हाथ उठे हैं कितने दुआ में

पिया गए परदेस भले हों , उनकी खबर तुम ले आना
महक उठे ये घर-अँगना , करते बातें लम्हे कानों में

चन्दा से चन्दा की बातें , मनुहार है सारी उसी पिया की
सज कर तुमसे मिलने आते , भेद है क्या इस बतियाने में

प्यार सिँगार है , दुनिया में सबसे सस्ता
दिलबर लेकिन सबसे महँगा , चन्दा ज्यों है तारों में

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

गुलाबों सा खिलो

बड़ी बेटी का जन्मदिन , ९ दिसंबर ...
फूलों पे चलो
खुशबू में पलो
दुनिया है तुम्हारी
गुलाबों सा खिलो

आसमाँ तो है कितना बड़ा
उड़ के देखो
रहती दुनिया के
चाँद सितारों से मिलो

हसरतें यूँ भी अक्सर
आतीं मन रँगने
नूर के महलों को
सूरज के ठिकानों सा रंगो

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

अपने दम पर

समझा था जिसे छाया मैंने
वो तो बादल का टुकड़ा भर था
झीनी चदरिया तार-तार हुई
और तपता सूरज सर पर था

भरमों के बिना जीवन कैसा
अरमाँ का अपना भी कोई घर था
उम्रों से निरास निहाल हुई
अपनी कश्ती में कोई पर था

मिलते ही जगह भरने लगता
इक वहम का ऐसा भी सर था
टूटे जितना हम जुड़े मिले
चलना जो अपने दम पर था

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

उम्मीद के सूखे पत्ते

ज़िन्दगी जुए सी है
हाथ में आ जाएँ जो थोड़े इक्के
सलाम ठोकते हैं सारे पत्ते

उम्मीद के सूखे पत्ते
मय ज़र्द चेहरों के
बड़े बेमन से किये हैं अलग
ज़मीं गीली है अभी
मगर वो आबो-हवा नहीं है

रोज़ घटता बढ़ता है
उम्मीद का साया भी
चन्दा की ही तरह
कौन सी चीज है
जो अमर होती है
एक हमको ही न आया हुनर
ज़माने के साथ चलने का
या तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया जा रही है
किसी और ही राह ...

कहने जो गये हम
तो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा

सोमवार, 14 नवंबर 2011

टिम टिम करते तारे

चौदह नवम्बर पर बच्चों के लिए 

नन्हें बच्चे प्यारे
आँखों के दुलारे
झट से ये मुस्का देते हैं
रँग सारे बिखरा देते हैं

चन्दा मामा प्यारे
थक कर कभी न हारे
दूर खड़े मुस्काते हैं
हमको वही चलाते हैं

नन्हीं नन्हीं परियाँ
सँग जादू की छड़ियाँ
हिला हिला बिखरा देतीं हैं
सुख की सारी लड़ियाँ

टिम टिम करते तारे
नभ से उतरे सारे

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

तुम्हारे जाने से

बच्चों के घर में कुछ दिन बिता कर जाने के बाद एक अजीब सी ख़ामोशी छा जाती है , जिसे शब्द दे पाना नामुमकिन सा है ...



तुम्हारे जाने से यूँ लगता है
बहार आने से पहले चली गई शायद
कौन जगायेगा मुझे नीँद से उँगली पकड़
कौन चलेगा मेरे साथ साथ शामो-सहर
स्याही बन कर वही बात कागज़ पर चली आई है
इक चुप सी लगी है , ये रुत दूर तलक छाई है
मुँह बिचकाती हुई घर की दीवारें हैं
समझाते हुए खुद को इक उम्र गुजरी है
उड़ना है बहुत दूर तक तुम्हारे पँखों से
नीँद आती भी नहीं , जगी भी नहीं हूँ
सारे सपने तुम साथ ले कर गए
तुम्हारे साथ था ये दिल लगा हुआ
और अब , दिल लगाना पड़ता है

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

उसकी आँखों में दिवाली उतर आई होगी

वो बन सकता था खुदा ,
अपनी कीमत उसने खुद ही , कमतर आँक ली होगी

क्या दिया तुमने जो दिया ,
हक़ उसी का था , चीज अपनी ही माँग ली होगी

तोड़ो न दिल , कौन जाने
किस दुआ में खुदाई उतर आई होगी

कोई एक दिल भी रौशन जो किया
कौन जाने उसकी आँखों में दिवाली उतर आई होगी

गैर नहीं है वो ,
अपना समझा तो दूर तलक हरियाली होगी ....

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

हालात के हाथों में

हालात के हाथों में है चाभी अपनी
जिन्दगी ये भी है कैसी गुलामी अपनी

कौन साबुत है बचा वक्त के हाथों से
सुहाने पल भी हैं सुनामी अपनी

ख़्वाबों के बिना जिन्दगी का ठौर-ठिकाना ही नहीं
न देखें इन्हें तो ये भी है खराबी अपनी

मुँह मोड़ के चल देते हैं जब जब हम
गुलशन की नजर में होती ये खामी अपनी

चिकने घड़ों से पूछो कैसे रखे हो ठण्ड
धुँधली है नजर टूटी है कमानी अपनी

मुश्किलें डाल डाल हौसला पात पात
जिन्दगी ये भी है चाल जवाबी अपनी

बुधवार, 28 सितंबर 2011

यूँ दूर के चन्दा हो

यूँ दूर के चन्दा हो
सारी बातेँ न पहुँचतीं तुझ तक
मेरी सदायें लौट आतीं मुझ तक
चाँदनी रात का भरम ही सही
तेरा इतना सा करम ही सही
है आसमाँ तो अँधेरा बहुत
चाँद के साथ सारे तारे आते हैं निकल
मेरा तारों से कोई गिला ही नहीं
जिन्दा रहे ये आस के तू है सामने
मेरी हर राह पहुँचती तुझ तक
नजर के सामने तू है
काफी है मेरी पलकों पे उजालों की तरह
मेरी राह में तेरे क़दमों के निशानों की तरह
यूँ दूर के चन्दा हो

रविवार, 18 सितंबर 2011

चमकीला होता है अम्बर क्या

सूरज , ऐ चन्दा बता
वो दिन कैसा होता है
अरमान की बिंदिया माथे सजा
जब रोज सुबह कोई गाता है

चमकीला होता है अम्बर क्या
मेरी उम्मीदों से ज्यादा
वो लाली , वो गुन्जन
वो फूँक भला कौन भरता है

खिल उठते हैं फूल सभी
चिड़ियाँ भी गातीं मस्ती में
निशा के सँग सो जाते
वो समझ भला कौन भरता है

वो महक भला आती कैसे
बेचैनी सी हो रूहों में
सतरंगी किरणों के द्वारे
कौन रँग प्याली में भरता है

पलकें बिछती हैं राहों पर
सिर झुकता है सजदे में
उतरा न उतरा वही लम्हा
जो मन के फलक को भरता है

बुधवार, 7 सितंबर 2011

ये जो सामान रखा है

बम ब्लास्ट से फिर दिल्ली दहल उठी ....कभी किसी ब्रीफ केस , कभी कोई पोलिथीन या फिर मानव बम ....
ये जो सामान रखा है
कितना लहू , कितने चिथड़े हुए अरमान का है

जीवन तो वैसे भी पानी का बुलबुला
ज़रा सी ठेस लगी
बिखरा तो समेटा ही नहीं जाता
सूली पे टंगे हुए अरमान का है
ये जो सामान रखा है

लिखने चला है किस्मतें
रातों की नींद ले जायेंगी , सलीबें सारी
कोई पढ़ेगा फातिहा , कोई दुआ करेगा
इनमें अब भी है कोई आदमी सा बचा
कितनी चीखें , बिलखती यादें ,
तड़पते हुए इन्सान का है
ये जो सामान रखा है

हम छोटी छोटी बातों पर रो देते
टूटे हैं वादे , रूठी है जिन्दगी ,
उडीं हैं छतें
कहर ढाते हुए आसमान का है
ये जो सामान रखा है

आवाज हूँ मैं तेरे सीने की
कितना बारूद , बीमार है मन
धुआँ धुआँ हुए जमीर सा
सुनता ही नहीं तू
किस मिट्टी , किस कान का है
ये जो सामान रखा है

रविवार, 28 अगस्त 2011

पानी भूल आए घर

हौसले मेरे नहीं हैं टूटे हुए
पत्थरों से उलझ कर भी साबुत हूँ मैं
जिन्दगी यूँ कोई गीत , गुनगुनाती रही

तप रहा आसमाँ , राह तपती हुई
मँजिल यूँ मुझे बुलाती लगे
मेरे सिर पर धूप , कुनकुनाती रही

रेगिस्तानों की है यही खासियत
हर कोई तन्हा , अपने दम पर चले
पानी भूल आए घर , प्यास भुनभुनाती रही

समन्दर किनारे पहुँच कर भी तो
रेत तलियों की लहरें ले जाएँ घर
समन्दर हो के सहराँ ,
अपने हिस्से की छाया , कुनमुनाती रही

बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना हैं एक मशाल

अन्ना जैसे एक आन्दोलन का नाम , उन्हों ने जब एक मुहिम छेड़ी तो हजारों लोग उसमें शरीक हो गएये पीड़ा ही तो है जिसने सब को एक जुट कर दिया हैये भी सच है कि सिर्फ सरकार के कुछ लोग ही नहीं , भ्रष्टाचार आम आदमी की नस नस में भी समाया हुआ हैजिसको जहाँ मौका मिला है उसने हाथ जरुर आजमाया हैइसीलिए ये जरुरी है कि कुछ कानून कायदे देश चलाने वालों सहित सभी के लिये बनेंचाहते तो सभी यही थे मगर पहल करने वाले तो अन्ना हजारे ही हैं
पीड़ा है सबके उर में 
जिसकी है ये आवाज
अन्ना हैं एक मशाल
लेकर चले जो सबको साथ

मिटे जड़ से भ्रष्टाचार
हर खास आदमी आम
है आम आदमी ख़ास
क्यों कर हो कोई शिकार

महँगाई , बेरोजगारी
दिशाहीन है अपना समाज
लाठी है किसके हाथ
है नैतिकता क्यों नहीं ढाल

इतिहास ऋणी है उनका
औरों के लिये जो जीते
होते हैं कलमबद्ध वे ही
चलते हैं जो सीना तान

अन्ना हैं युग पुरुष
समय सीमा से परे
है दाँव पे जीवन उनका
गाँधी जी सी हैं मिसाल

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

कैसे करूँ पर्बत को राई

सारी दुनिया ऐसी पाई
पल में तोला पल में माशा
कैसे करूँ पर्बत को राई
अपनी फितरत देख तमाशा

दिल अपना और प्रीत पराई
दर्द की अपनी ये ही भाषा
छोड़ चला कोई राजाई
किसी का खेल किसी की आशा

मन्जर गर नहीं सुखदाई
बातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
दुखती रगें भी तो दवाई
साथी कभी , है प्रेरणा निराशा

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

माँ

२२ जुलाई , आज पूरे दस साल हुए माँ को दुनिया छोड़ कर गए हुए , श्रद्धांजलि स्वरूप कुछ पंक्तियाँ उनके लिये ......

जिन्दगी भर बचपन बोला करता
यादों की क्यारी में माँ का चेहरा ही डोला करता
न भूले वो माँ की गोदी , आराम की वो माया सी
जीवन की धूप में घनी छाया सी
पकड़ के उँगली जो सिखाती हमको , जीवन की डगर पर चलना
हाय अद्भुत है वो खजाना , वो ममता का पलना
गीले बिस्तर पर सो जाती , और शिकायत एक नहीं
चौबीस घंटे वो पहरे पर , अपने लिये पल शेष नहीं
होता है कोई ऐसा रिश्ता भी , भला कोई भूले से
छू ले जैसे ठण्डी हवा , जीवन की तपन में हौले से
न मन भूलता है वो महक माँ के आँचल की
न वो स्वाद माँ की उँगलियों का
जीवन भर साथ चले जैसे , उजली उजली
दुआ ही दुआ , विष्वास बनी वो फ़रिश्ता सी



आठ मई मदर्ज डे पर एक कविता माँ के लिये लिखी थी , उसका लिंक है ...माँ ...इसी पेज पर नीचे ...

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

चेहरा कैसा है दहशत का

मौत का होल सेल प्रोग्राम चल रहा था , जो भी उस वक्त पास से गुजरा , उसकी चपेट में आ गया । ये हाड़-मांस के पुतले मशीनें नहीं थे , दिल जिगर भी रखते थे , इनके उधडे मांस से इनको भी दर्द होता था ...अश्क आहें रुदन करते हैं ...बिखरे टूटे हाथ पाँव सदियों तक मुआवजा मांगेंगे ...जख्मी ख़्वाब लाचार से ...फिर जुर्म की दुनिया न मांगें ...राहत का मरहम ये ही है कि सहारा बनो , मुस्कान बनो , खुदा की इक झलक सी पहचान बनो ...

चेहरा कैसा है दहशत का
मोहरा हो जैसे वहशत का
चुभते चीखते से मंजर
पकडे हैं हाथों में खंजर
सबके घर शीशे के ही हैं
फिर पत्थर क्यूं कर उठाए हैं


चेहरे थे जो सलोने से
तोड़े हैं देखो खिलौने से
काम खुदा का कर डाला
भेजा है थोक में इक झाला
कोई टूटा जोड़ दिखाए न
कोई उधड़ा सिल के बताये न
खुद को ही जो छल बैठे हैं
खुदी से आइना छुपाये हैं

सोमवार, 4 जुलाई 2011

जिन्दगी सी मिठास

जीवन रेत और चीनी का मिश्रण 
बड़ी सफाई से बीनना होगा
रेत के कण फिर भी साथ साथ लिपट आयेंगे
प्रेम के पानी से जुदा करना होगा

काम की बात उठा
भ्रमों में न पड़ना होगा
जिन्दगी खेल नहीं है फिर भी
खेल सा मजा लेना होगा

वक्त के साथ बहते हुए
वक्त से पार पाना होगा
जितना कुछ है मिला
उसे हर हाल सजाना होगा

अनुपयोगी बातेँ हैं रेत सी
बाधाओं को न बुलाना होगा
तरल बन कर रगों में घुलती
जिन्दगी सी मिठास को पाना होगा

मंगलवार, 28 जून 2011

जब वो गुलशन से मुँह मोड़ लेता है

नहीं नाराज नहीं
खाते हैं , पीते हैं , इबादत भी करते हैं
उम्मीद अब मुरझाने लगी है
गम कोई खाने लगी है
इंतज़ार को बहलाने के लिये शब्द कम पड़ने लगे हैं
नीँद आँखों से कोसों दूर
सपने माँगते मुआवज़ा
बीज बोये , अम्बर ओढ़ाए
मेहरबानियों ने मुँह मोड़ा
आदमी वक्त से पहले मर जाता है
जब वो गुलशन से मुँह मोड़ लेता है
चाँद-सितारे , धरती-अम्बर , बहारें सारे
हो जाते हैं बेमायने
रँग सारे कौन चुरा ले गया
नूर के वो शामियाने कहाँ गए
पलट दे जो तू दो-चार सफ्हे
मैं इन वरकों को भुला दूँ
न आये हों जैसे ये दिन भी कभी
गम के सारे अहसास सुला दूँ
नहीं नाराज नहीं ...

मंगलवार, 21 जून 2011

उम्र को दस्तक देते हुए

किसने देखा है ...
डाल पे आम को पकते हुए
और उम्र को दस्तक देते हुए
उल्टी गिनती है लम्हों की
और ज़ार-ज़ार दिल रोते हुए

कुछ वक्त से पहले पक जाते
कुछ कच्चे तोड़ लिये जाते
मुखड़े जो थे अरमान भरे
रँगों के निशाँ हैं खोते हुए

सलवट सलवट जो सोया है
झुर्री झुर्री अरमान बड़े
काटीं हैं सबने वही फसलें
खुशबू के चमन से होते हुए

चाँदी चाँदी है रातों की
और धूप सुनहरी छाया बनी
छत के नीचे कोई तपता नहीं
मँजिल के बहाने बोते हुए

मंगलवार, 14 जून 2011

दम है अपना

सालों बाद बच्चों के साथ हरमन्दर साहिब , गोल्डन टेम्पल , अमृतसर आई हूँ । सरोवर के पास बैठ कर शबद-कीर्तन सुन रही थी ......
बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा
मुँह पर जल के छींटे डाले और सच्चे पातशाह के लिये मन ने गुनगुनाना शुरू किया । शबद की ये तीन पंक्तियाँ मैंने भी चुरा लीं , और उसी लय में गाया ....आवाज भी मेरी है और स्टेंजाज़ भी मेरे हैं ......
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बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब

तू रखवाला , सदा सदा

रूह मेरी को तू नहला दे
जन्मों की मैं मैल मिटा लूँ
गठरी सिर पर बहुत है भारी
रख के किनारे थोड़ा सुस्ता लूँ


बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा


रोग कोई भी थोड़ी देर का साथी
पीड़ से दामन अपना छुड़ा लूँ
बैसाखी नहीं तू , दम है अपना
जब जी चाहे तुझको बुला लूँ


बाबा मेरे तेरा सदका
तू सच्चा साहिब
तू रखवाला , सदा सदा

मंगलवार, 24 मई 2011

जमीं खिसकी तो बने फ़कीर

रात और दिन का मेल
कभी संध्या कभी सबेर
बस थोड़े से पल लगते
जिन्दगी के हाथों में बटेर

जमीन और आसमाँ के दरमियाँ
एक पतली सी लकीर
जितने भी सपने बुनो
जमीं खिसकी तो बने फ़कीर

धूप और छाया तकते
कच्ची वय के अबीर
जाने कब सो जाता
राह तकते तकते जमीर

शनिवार, 7 मई 2011

माँ

कम शब्दों में माँ की परिभाषा

माँ स्नेहमई
माँ त्यागमई
माँ कर्म की प्रतिमूर्ति
माँ छाया
माँ हिफाज़त
माँ इक सहेली
सच्ची हितैषी
सबसे बढ़ कर
जैसे हो अपना आप

माँ आड़
माँ छत
माँ दुआ
ताउम्र चलती साथ
खुशनुमा अहसास सी

माँ चलीं गईं इस दुनिया से , मगर मेरे मन पर जो छाप छोड़ गईं ....

ऐसी थीं मेरी माँ देखो
हालात के हाथों हिलीं नहीं
दुक्खों में कभी न डोलीं माँ
कर्तव्य की थीं साक्षात मूर्ति
जीते जी कुछ न भूलीं माँ
स्नेह भरी , ममता से भरी
गुस्से में कभी न बोलीं माँ
अनुशासन वो पिता का था
जिसके रँग में हो लीं माँ
और सहज हो हँस देतीं
ऐसी थीं मेरी भोली माँ
एक न्यामत हो जैसे
अकथ अबूझ पहेली माँ
ऐसी थीं मेरी माँ देखो

रविवार, 1 मई 2011

और युगों सा बीत गये

ख़ामोशी को पढ़ना आता है
कितने किनारे टूट गये
एक टाँग पर खड़े रहे हम
देखो हमको चलना आता है

धरती अम्बर रूठ गये
और सहारे छूट गये
रात सा साथी पाया हमने
और युगों सा बीत गये

झिलमिल तारों को देखा है
अपने सितारों को देखा है
बीज तो फूलों के बोते सभी
उगता वही जो किस्मत में बदा है

गढ़ देते हम कितने नगमें
शान में तेरी ऐ मौला
उम्मीद का दामन पकड़े हुए
रात और दिन से छूट गये

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

कौन गीतों में उतरेगा , नज्मों में ढलेगा

बहुत अपने से जो लगते हैं , कुछ ऐसे रिश्तों के लिये ,

सावन के अन्धे को दिखता है हरा ही हरा
जेठ के जले को दुपहरी भी लगे बहाने की तरह

मिले हैं कुछ ऐसे रिश्ते भी
साथ चलने को मेहरबानी की तरह

है किसको पता , कौन गीतों में उतरेगा
नज्मों में ढलेगा रूहे आसमानी की तरह

हम उनकी बात टाल न सकें
ये कमजोरी है या ताकत पहेली की तरह

वो मुस्कराने लगते हैं अक्सर
यादों की क्यारी में जुगनुओं की तरह

वो जो लोग समा जाते हैं धड़कन में
इतने अपने हैं कि जिस्म में जाँ की तरह

थोड़े पैबन्द लगे थोड़े सितारे हैं टंके
जिन्दगी के दिलासे , पींगें सावन की तरह

तेरी दुनिया का नशा नाकाफी है
ये रिश्ते हैं या नाते सुरुरों की तरह

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

लगते हैं फूल महकने वो

ऐसी कुछ यादें हर माँ के दिल में बसती हैं ...
तेरी फ्राकों पर काढ़े जो फूल
तेरे नन्हे तकिये पर
क्रोशिये से बनाई तितली
सीने में सहेजी यादों से आते हैं निकल
लगते हैं फूल महकने वो
तितली मँडराने लगती है

तेरे टोपे मोज़े बुनते हुए
जाने कब लड़कपन उड़ है गया
तेरी एक एक याद को रखना चाहा
फिर सोचा , यादों से उलझना ठीक नहीं
बातों में अटकना ठीक नहीं
बाँटीं तेरी कितनी चीजें
फिर भी , तेरी नन्ही रजाई मोतियों वाली , नानी का उपहार
नानी की याद भी बसी जिसमें
तेरा कोट भी एक फर वाला , रख डाला
तेरा नन्हा गोरा गुलाबी मुखड़ा तो
आज भी उसमें आता है नजर
मेरे मन के कोने से झाँकता है वो
फूल वो आकर महकने लगते
तितली मँडराने लगती है

मंगलवार, 29 मार्च 2011

कर्म यज्ञ है आहुति जीवन

जात पूछो साधू की
एक ईश के बन्दे

हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
जात पात के रन्दे

राह सँकरी पहुँचे वहीं
धर्म नहीं हैं फन्दे

कर्म यज्ञ है आहुति जीवन
अपने अपने हैं हन्दे

एक नूर से उपजे हैं सब
कौन भले कौन मन्दे

रन्दे=औजार जिनसे तराशा जाता है
हन्दे =उपभोग से पहले ब्रहामण के लिये निकाला जाने वाला भाग

सोमवार, 14 मार्च 2011

वो जो रोज रोज मरते हैं

मरना मना है
वो जो रोज रोज मरते हैं
लम्हा लम्हा , ज़र्रा ज़र्रा
उसका क्या ?

कर्ज मर्ज , दँगा पँगा
नशा वशा , हर्ज तर्ज़
सौ बहाने मौत के
एक बूँद ज़िन्दगी से महरूम
बेकसी , बेचारगी , लाचारगी
कटोरा लिये हाथ में
भीख माँगे उपहारों की
सीने में जँगल झाड़ हैं
भड़के चिन्गारी दावानल सी
टूट फूट , मरम्मत होती सदियों से
निदान उपचार से बेहतर है
दो बूँद जिन्दगी की पिला
अकड़ न जाए मन कहीं
टूट कर मुर्दा हुए या नश्तर बने
जिन्दगी का रस ही आँचल बने
भूल कर भी न ठोकर लगा
सीने में मचलते अरमान हैं
तुझसे ही कई तूफ़ान हैं
दिशा दिखा , दशा बदल
जिन्दगी मेहरबान है
जिन्दगी मेहरबान है

रविवार, 6 मार्च 2011

आकाश को नहीं छोड़ा करते

जिस गली जाना न हो
उसका पता नहीं पूछा करते
सो गए ज्वालामुखी
चिन्गारी को नहीं छेड़ा करते

हश्र तो एक ही होता है
फना हो कर भी , लब पे लाया नहीं करते
मेरे मौला की मर्जी क्या है
हँसते हुओं को रुलाया नहीं करते

वक्त से पहले वक्त के सफ्हे
नहीं पलटा करते
इस लम्हे से पहले उस लम्हे तक
नहीं पहुंचा करते

यूँ बियाबान से नाता
नहीं जोड़ा करते
सूख जाते हैं जड़ों से
जीवन से मुहँ नहीं मोड़ा करते

एक ही बात कही
टूटते हुए तारों ने
टूटे हुए लम्हों की गिनती में
आकाश को नहीं छोड़ा करते

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

बिना शिकन डाले

वो दस बार तेरी चद्दर को बिगाड़ें
और तू माथे पे बिना शिकन डाले उसे सँवारे
जो इतना सब्र है तो आगे बढ़
कोई खुदा है तुझे संभाले हुए

कहाँ मुश्किल है कविता करना
मुश्किल है तो बस उसे जीना
कोई डोर है जो आड़े वक्त में भी
टूटने से है उसे बचाए हुए

इम्तिहान तो है तालीम का हिस्सा
और मौका क़ाबलियत दिखाने का
ठुकते पिटते बर्तन को कोई
ठह्कने से है बचाए हुए

देता है खुदा भी थपकियाँ
चाहिए बस पढ़ने को नजर
हिसाब क्यों कर देगा वो
छाया की तरह है जो संभाले हुए

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

और ख़ुशी से नयन सजल

बेटे ने PCC (Chartered Accountant) में - 29th Rank (India,Dubai,Nepal) प्राप्त किया । आज बसन्त पंचमी , वीणा वादिनी का दिन , सुबह से ही मन गुनगुना रहा था ...
तू जो पकड़ ले हाथ तो
सारे इरादे हों सफल

दिखाए जो तू रास्ता
सारे नतीजे हों अव्वल

बल्लियों उछलता दिल
खिले ज्यों झील में कमल

फूटती पहली किरण
सूरज देखो आए निकल

कलम ही है नवाजती
भविष्य यूँ उज्वल-धवल

हो वीणा-वादिनी का वर
चलना है बस संभल-संभल

माँ की ममता ने घर पाया
आज फिर नूतन नवल

है द्रवित हृदय हमारा
और ख़ुशी से नयन सजल

और कभी मन यूँ गुनगुना उठता ...
आस के फूल महकाए रखना
दिया जला है , जलाए रखना
सुखद भविष्य और साथी मन के
अपने बच्चों को देना
मांगती है एक माँ , दूसरी माँ से
मेरा तो है इतना सा जगत
तू है जग की जननी माँ
इल्तिज़ा मेरी तो है इतनी सी फ़कत
अपने बच्चों के चेहरे पर
मुस्कान सदा बनाए रखना
आस के फूल महकाए रखना

और परिणाम सुखद आया ....


वक्त की मुट्ठी खुली तो लम्हा हाथ आया
सलाम ठोकता हुआ नसीब भी साथ आया


शुक्रगुजार हूँ माँ सरस्वती की , जिसने आज ये दिन है दिखाया .....आप सब के साथ ख़ुशी बाँट रही हूँ ...

बुधवार, 26 जनवरी 2011

पाने को है क्या बाकी

मेरे मन , कैसे तू बतायेगा
समझेगा , समझायेगा
पाने को है क्या बाकी
क्यों झोली फैलायेगा

अपने जो बड़े अपने
करते तीरों सा घायल हैं
मरहम भी नहीं रखते
रिसते हुए जख्मों पर
तेरा ही नहीं ये तो
हर इक का फ़साना है

दिए को तो जलना है
जलने का ये कायल है
हवा हो या आँधी हो
बाती में नमी रखना
हँसना है तेरे मन को
या जग को हँसाना है

तेरे ही तो टुकड़े हैं
तेरी राहों के मन्जर हैं
इनके बिन क्या है तू
तेरा ही खजाना हैं
बन जायेंगी ये यादें
जीवन को सजाना है

मेरे मन , कैसे तू बतायेगा
समझेगा , समझायेगा
पाने को है क्या बाकी
क्यों झोली फैलायेगा

सोमवार, 17 जनवरी 2011

प्रकृति से दूर

नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए
कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों से चहकते हुए
तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा

सोमवार, 3 जनवरी 2011

सनद शेष रहे ( नए साल का स्वागत है )

सीने में उठते बवंडर की
हर लहर कहाँ साहिल पाती
वरना शोर के सिवा न कुछ शेष रहे
बीच भँवर में दम तोड़ती
घुलती कच्चे घड़े की तरह
नामो-निशाँ भी न शेष रहे
मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की
खुदाई में मिले
आदमी की सभ्यता के अवशेष रहे
जब जमीं न हो क़दमों तले
उल्टे लटके हों , नजर के सामने मगर
आसमाँ शेष रहे
सामाँ तो बंधा सबका है
युग के सीने पर आदमी के हस्ताक्षर
सनद शेष रहे


बीते हुए साल की छाप लिये
कुछ ऐसा कर गुजर जाएँ
मानवता का सिर ऊँचा हो
पीढ़ियों तक सनद शेष रहे
नए साल का स्वागत है
नए साल का स्वागत है