कर्म करते करते पता नहीं कब काम आदमी को छोड़ जाते हैं या आदमी काम करना छोड़ देता है । और जैसे जिन्दगी फेड होती जाती है । हर जिन्दगी का हश्र यही क्यों है ...आज का हँसता-गाता चेहरा कल एक फोटो फ्रेम में तब्दील हो जाता है । हमारे क्लब की बड़ी सीनिअर मेम्बर श्रीमती कमला सब्बरवाल , सहज , हँसमुख , मिलनसार ...अचानक बीमारी का पदार्पण ...छः महीने के अन्दर दुनिया को अलविदा । सब्बरवाल साहेब ...धनुष की तरह झुके हुए कन्धे , उम्र की वजह से अशक्त चेहरा ...कह रहे थे ...' उसने हमें कभी दुःख नहीं दिया , बस यही दुःख दे गई ' । बहु ने कहा कि...' हम लोग रो पड़ते थे तो यही कहती थीं कि देखो मेरा कोई काम अधूरा नहीं है , क्यों रोते हो '। मौत की पदचाप सुन कर तो बड़े बड़े डोल जाते हैं , कोई कैसे इतना सहज हो कर मृत्यु को गले लगा सकता है ।
रागी गा रहे थे ...
हाड़ जले जैसे लकड़ी का फूला , केश जले जैसे घास का फूला
अपने कर्मों की गत , मैं क्या जानूँ , बाबा रे
बीमारी के दिनों में , मिसेज सब्बरवाल से मिलने गयी थी तो देखा कि सब्बरवाल साहेब कुर्सी में लगभग धँस कर बैठे हुए थे , बिना सहारे के वो उठ कर खड़े भी नहीं हो सकते थे , पिछले दिनों बहुत बीमार रहे थे , मिसेज सब्बरवाल ने जी जान से सेवा की थी । और अब वो कातर निगाहों से देख रहे थे ...पत्नी की ऐसी बीमारी ...जीने के दिन थोड़े रह गए थे ...फिर भी वो हँसते हुए कह रहीं थीं कि कुछ नहीं डॉक्टर दवाई दे रहें हैं , इन्फेक्शन ठीक हो जाएगा । गरिमामयी सहजता और प्रफुल्लता के उदाहरण का सा जीवन जिया उन्होंने । उन्हें मिल कर आई थी तभी ये पंक्तियाँ मन से निकल कर कागज़ पर उतर आईं थीं ।
इक दिन ले आती है उम्र इस पड़ाव पर
एक घुल रहा होता है दुनिया छोड़ जाने के बहाने पर
दूसरा सहमा बैठा होता है साथ छूट जाने के डर से
कौन बाँटेगा वो यादें
उम्र का तय था किया सफ़र जो साथ में
अपने हाथों से छूटी आगे चलने की डगर
सालों-साल गुजरे बड़ी तेजी से
अब ये वक़्त आन खडा है सिरहाने पर
कोई भी हाथ रोक न पायेगा
कोई थपकी , कोई झिड़की , न कोई खजाने की खिड़की
दूर खड़े देख रहे हैं
शरीर नश्वर है , कौन सी बात है जो साथ जायेगी
जब न होगा हाथों में दम ,
वो तेरी सोच यहीं जिन्दा रह जायेगी
यही तो खजाना है , साथ जाना भी है
खुशबू को यहीं छूट जाना भी है