सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

सवाल आरुषि की माँ से

 जैसे है हक़ तुम्हें जीने का 
वैसे ही हक़ था उस नन्हीं जान को भी दुनिया में रहने का 
हाँ तुम्हारी आँखों में नहीं है तड़प 
ये जान लेने की कि किसने काटा गला तुम्हारी बेटी आरुषि का  
अब लिख रही हो कविता 
तुम्हारी कविता भी वो सवाल नहीं उठाती 
मन फरेबी है , कब मछली सा पलट के समन्दर का पानी पी लेता है 

मदद करनी थी तफ्तीश में 
मिटा डाले क्यूँ सारे साक्ष्य ?
कानून की आँख पर तो पट्टी बँधी है 
ज़मीर भी क्यों सोने चला गया है 
न दिन चढ़ता है ,न तारीख बदलती है,ठहर जाता है वक़्त 
ये ऐसा वाक़या हजार सवाल करता है 
तुम्हारी आँखों में वो सवाल क्यूँ नहीं उठता ?
जलजला आना चाहिये था 
क्या राज दफ़न है तुम्हारे सीने में 
तुम्हारी ममता कभी तो सवाल पूछेगी 
चीख-चीख कर आसमान सर पे उठा लेगी 
हाँ बताओ वो बात भी दुनिया को 
जो सबक हो कि फिर आगे कोई उस राह न चले 
न चढ़े बलि इस तरह कोई भी ज़िन्दगी 
न मुरझाये कोई कली इस तरह असमय , अकारण ,अकस्मात