सोमवार, 25 मई 2015

कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं


तेरी छोटी बहना के कमरे की दीवार पर 
तेरी बनाई हुईं तितलियाँ 
पँखे की हवा में पँख हिलाने लगतीं हैं 
जैसे उड़ रहीं हों किसी गन्तव्य की ओर 

बदल लेते हैं हम घर अक्सर 
जैसे चुरा रहे हों नजरें खुद से 
मछली ,तितली और फूलों को देखा है अक्सर मन के कैनवस पर 
आसाँ है इन्हें बना पाना , तैरें उड़ें और फूल खिलें 
कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं , और कोई कुशल चितेरा बन जाता है 
न जाने कितनी ही चीजें तेरे अहसास में गुम हैं 

तू उठ कर चली गई है 
मगर हम संजोये हुये हैं सब कुछ ऐसे 
जैसे हर सलवट को सजाये हैं 
तेरी नर्म उँगलियों के अहसास को गले से लगाये हैं 
जब जी चाहे बुला लेते हैं तुझे यादों में 
मेरी आस की तितलियाँ भी हौले से पँख हिलाने लगतीं हैं 
और फूल खिलने लगते हैं 

मंगलवार, 19 मई 2015

मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान

४२ साल की बेहोशी के बाद हमेशा के लिये सो गईं अरुणा शानबाग , मुठ्ठी भर हड्डियों में तब्दील हुईं वो ख़ूबसूरत चेहरे की मालकिन अरुणा , एक टीस सी उठती है ,कुछ हर्फों में उतरती है. ...

वो एक दिन , वो एक कर्म ही काफी है 
मेरी हस्ती को मिटा देने के लिये 
तेरी ये मिल्कीयत मेरे ज़मीर पे भारी है 

के हम भी सीने में दिल रखते हैं 
जुबाँ खामोश है , फ़िज़ाँ भारी है 
तिल-तिल मरता हुआ मिट गया कोई 
मिट्टी में मिल गई सारी खुद्दारी है 

जो रँग भरते हैं गुलशन में 
मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान 
चुरा लिये हैं किसी ने मेरे सुबह-ओ-शाम 
चन्द साँसों का क़र्ज़ बाकी है 
ज़िन्दगी ने ये रात भी गुजारी है 

आईना किसको दिखाऊँ 
धड़कनों की भी उधारी है 
देखे तो तुझे भी शर्म आ जाये 
के तेरी करतूत ने ले ली मेरी उम्र सारी है