गुरुवार, 27 अगस्त 2020

सुशान्त सिंह और मौत की आहट

 


जब सुबह उठने की कोई वजह नहीं मिलती 
जब सिर पर कोई छाँव नहीं होती 
हर सुबह कोई कैसे उठे 

ये कैसे चेहरे इकट्ठे किये थे आस-पास 
वक्ते-जरुरत कोई एक भी आया न सँभालने 
और मौत ने ज़िन्दगी से साँठ-गाँठ कर ली 

सुख में तो सभी बन जाते हैं अपने 
साथ वो है जो दुख में छोड़े न कभी 
इतना आसान नहीं होता दुनिया से चले जाना 

तुम्हारी नैतिक ज़िम्मेदारी थी ,वो प्यार था तुम्हारा 
कोई बीमार है तो चारासाज बनो 
अपनी ज़िन्दगी को कोई मतलब , कोई आवाज तो दो 

वो सितारा था दुनिया को रौशनी देता 
पलट के सो गया कभी न उठने के लिये 
रूठ गया अपनी ही ज़िन्दगी से , किसे आवाज दें  

आदमी टूट जाता है इश्क के बेमौत मरने से 
किस ज़मीन पर खड़े हो ,सवाल उठेंगे 
ये बाज़ी तुम हार गये हो , अब जीतने में क्या रक्खा है 

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

पतझड़




किसी के लिये पतझड़ है महज़ एक मौसम 
गुजर जायेगा , पत्ते झड़ेंगे , फिर नये कलेवर के साथ सब कुछ नया-नया सा होगा 
किसी के लिये ठहर जाता है सीने में 
पीले पड़ते हुए पत्ते मटमैले रँग के शेड्स हो जाते हैं 
ये बेरँग धूल-धूसरित से रँग 
ज़िन्दगी के सबक सिखाते हुए ढँग 
जैसे सो जाती है फिजाँ आँख मूँद कर 
सूखे पत्तों के बीच चहल-कदमी का शोर 
किसने देखा है , कौन जानेगा 

गुजरा तो हर कोई है ,थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा 
पतझड़ है उदासी की छटपटाहट , हलचल की कुलबुलाहट ,सृजन की अकुलाहट भी 
और फिर धरती की सारी नमी बटोर कर , नन्हीं कोंपलें खिल उठती हैं ;
जैसे कान लगे हों बसन्त की आहटों पर 

पतझड़ है मौसमों में एक मौसम 
सब कुछ खो कर भी कुछ खड़ा है ,
जैसे जीने की ज़िद पे अड़ा है 
दिल खिला हो तो गुनगुनाता है पतझड़ भी 
गुनगुनी धूप हो ,सूरजमुखी से चेहरे हों 
मटमैले रँग भी जादुई से लगते हैं 
तिलसमी दुनिया के ख्वाब ऊँघते से लगते हैं 
जैसे रजनी सो रही हो कुदरत की बाँह पर सर रख कर 

हाँ मैं पतझड़ हूँ ,ज़िन्दगी के कैनवस पर भरा हुआ इक जरुरी सा रँग 
मेरे बिना अहमियत नहीं लाल-गुलाबी ,हरे-पीले रँगों की 
बस तुम जरा रौशनी डाल लो और हर शाख पे फूल खिला लो 

बुधवार, 12 अगस्त 2020

नियति


नियति कहती है कि कहाँ जायेगा मुझसे बच कर 
मैं तेरे पाँव की जँजीर नहीं हूँ ,
मुझसे गुफ्तगू कर ले 
कुछ मुझसे भी मुहब्बत कर ले 

हर दिन मैं तेरा आज हूँ 
तेरे भविष्य की नींव 
तूने खोले ही कहाँ अपार संभावनाओं के पन्ने 
कल जो दफ़न हुआ अतीत के पन्नों में 
सीने से निकल करेगा कितनी ही बातें 
इसलिए आज को हँस कर गले से लगा 

मैं तेरी मुस्कानों में जी जाती हूँ 
तूफानों से हँस कर गुजर जाती हूँ 
मैं गया वक़्त तो हूँ मगर लौट के भी सज सकता हूँ 
तू कभी बहना समय के सँग-सँग  
कभी हवा के रुख से उल्टा चलना 
मैं ले आऊँगी किनारे पर ,भरोसा रखना 

मै नियति हूँ ,कोई गैर नहीं ,दोस्त हूँ तेरी 
मैं ही ले आती हूँ  उन सब चेहरों को तेरे आस-पास 
जिनके साथ तेरे कर्म हैं बँधे 
तू भी लिख कुछ ऐसी दास्तान 
के मुझे नाज़ हो तुझ पर 
कुछ मुझसे भी मुहब्बत कर ले 

रविवार, 9 अगस्त 2020

वो बसता है नेकी में

जिसको दिखती ही नहीं आगे चलने की डगर 
थोड़ा आसान तो हो जाये उसकी साँसों का सफर

कौन जाने किसकी पेशानी पे क्या-क्या लिक्खा 
जो भी देते हैं लौट आता है कई गुना हो कर 

जिसको हम ढूँढ़ते हैं इबादत-गाहों में 
वो बसता है नेकी में ,अपने बन्दों में आता है नजर 

लोग करते हैं दया ,दान और करुणा 
मजबूरी ,धर्म ,अन्ध-विष्वास या जोर-जबर्दस्ती से डर कर 

तेरे अँजुरि भर देने से ,बदल सकती है किसी की दुनिया 
जो तू रख सके तो रख सबकी ही खबर 

ये महल , अट्टालिकायें ,सोने सी लँका 
अधूरी हैं ,जो नहीं है किन्हीं दुआओं का असर 

मैं तो सिर्फ आईना दिखाऊँगी 
जो तेरा सोया ज़मीर जगे तो सोच , ठहर 

कभी किसी के दर्द का हिस्सा तो बन , 
किसी की मुस्कराहट का कारण तो बन 
तेरे आड़े वक़्त में यही पल आ खड़े होंगे ,तेरी ढाल बन कर 
शारदा अरोरा 

सोमवार, 3 अगस्त 2020

रक्षाबंधन


रेशमी सी डोर है रिश्तों की, न उलझने देना
नाजुक से बन्धन हैं ,न दरकने देना
साझीदार हो बचपन के,
दुख-सुख के साथी
बेशक हैं जुदा-जुदा अपनी राहें
ठन्डी सी हवाओं के माफिक, मिलने की दुआ करना
आबाद रहें ये रिश्ते , जुड़ते हैं जड़ों से ,तो खिल जाते हैं चेहरे
गुलशन की उम्मीदों पर खरा उतरना
ये रक्षाबंधन है, त्योहार है इक पावन सा
कोई खड़ा है तुम्हारे साथ मनभावन सा ,
इस रिश्ते को हर हाल संभाले रखना