बहुत छोटी सी थी जब वृन्दावन से गुरु जी हमारे घर आते थे ...उन्हीं ने सिखाया था कि सुबह उठते ही सबसे पहले दोनों हथेलियों को साथ साथ लाते हुए माथे से छुआते हुए , हथेली में विराजमान ब्रह्मा विष्णु महेश को प्रणाम करो , उसके बाद हथेली में ही विराजमान माँ सरस्वती और लक्ष्मी को प्रणाम करो और फिर धरती माँ का अभिवादन करो । इस प्रार्थना में कर्म और उगते सूरज को मैंने खुद-ब-खुद जोड़ लिया है । उगता सूरज यानि प्रकाश ...आशा ..उत्साह ..जो कि इस सारे ब्रह्माण्ड के गतिमान रहने की वजह है ।
तेरी गोदी से उठ कर माँ
नमन तुम्हें है , हे जग जननी
भार मेरा सहती जो निस दिन
नमन है धरती के कण कण को
नमन है ब्रह्मा विष्णु महेश को
सृजन , पालन और सँहार के उन नियमों को
बनते बिगड़ते सँसार के शाष्वत नियमों को
नमन है आने जाने की इस विधा को
नमन है माँ लक्ष्मी और सरस्वती को
सहज है जीवन और बुद्धि की व्याख्या तुम हो
जिनकी स्तुति में झुकता जग सारा
नमन है उनकी आशीषों को
तिल्सिम सी हैं अपनी रेखाएँ
नमन हथेली के कर्मों को
धो डाले जो वजूद मुश्किलों का
नमन है किस्मत के ताले की इस कुँजी को
नमन तुम्हें , ऐ उगते सूरज
मन और प्राण की भाषा तुम हो
तम है वहाँ पर जहाँ न तुम हो
दसों दिशाएँ गूँज रही हों
प्राण-शक्ति का अभिनन्दन है ...
सोमवार, 27 फ़रवरी 2012
रविवार, 12 फ़रवरी 2012
धूप की मेहरबानियों से
क्या यही हूँ मैं
कनखियों से झाँकती बालों की सफेदी
दस्तक देतीं हुईं उम्र की लकीरें
वो सलोना चेहरा जिसे जानती थी मैं
कहाँ खो आई हूँ
जीवन की आपा-धापी में
हाय चैन इक पल न मिला
होश आया भी तो कब
आइना झूठ नहीं बोला करता
हर शिकन का राज़ वो खोला करता
फिसला है बहुत कुछ हाथों से
झपक रहा है वक्त आँखें
इक दौर गुजरा है सामने सामने
रुआँसा सा है सीने में कोई नन्हा बच्चा
उम्र ने कोई चाल चली है शायद
जिस्म ने किया है सफ़र
रूह मगर वहीँ है खड़ी
अभी तो और आगे जाना है
जब न होंगे मुँह में दाँत , पेट में आँत
क्या खा के चलाना है
दगा दे गये ख़्वाब , दुनिया भर के झमेले
छाया बने धूप की मेहरबानियों से
उम्र की चाँदी दे कर , सोना सारा साथ ले गये
क्या यही हूँ मैं
कनखियों से झाँकती बालों की सफेदी
कनखियों से झाँकती बालों की सफेदी
दस्तक देतीं हुईं उम्र की लकीरें
वो सलोना चेहरा जिसे जानती थी मैं
कहाँ खो आई हूँ
जीवन की आपा-धापी में
हाय चैन इक पल न मिला
होश आया भी तो कब
आइना झूठ नहीं बोला करता
हर शिकन का राज़ वो खोला करता
फिसला है बहुत कुछ हाथों से
झपक रहा है वक्त आँखें
इक दौर गुजरा है सामने सामने
रुआँसा सा है सीने में कोई नन्हा बच्चा
उम्र ने कोई चाल चली है शायद
जिस्म ने किया है सफ़र
रूह मगर वहीँ है खड़ी
अभी तो और आगे जाना है
जब न होंगे मुँह में दाँत , पेट में आँत
क्या खा के चलाना है
दगा दे गये ख़्वाब , दुनिया भर के झमेले
छाया बने धूप की मेहरबानियों से
उम्र की चाँदी दे कर , सोना सारा साथ ले गये
क्या यही हूँ मैं
कनखियों से झाँकती बालों की सफेदी
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