थोड़ी चलने को जगह हो जाये
शाम को मैं समझ लेती हूँ सुबह
इसी टुकड़े पर सुबह की खेती करके
थोड़ा आसमाँ मेरे नाम हो जाये
दीवारों से उलझूंगी तो चलूँगी कैसे
सिर पर खड़ा सूरज सम्भालूँगी कैसे
तपिश में थोडा आराम हो जाये
उड़ जाती हैं धज्जियाँ तब कहीं जाकर
ख़त्म होता है अहम , सच तो बोला है बहुत
थोड़ा झूठ से भी , काम हो जाये