12 मार्च , चाचा जी ऐसे चले गए जैसे बड़े भाई के पीछे-पीछे लक्ष्मण चले गए हों | अपने लिए कितने कठोर नियम थे और दुनिया के लिए कितने नर्म दिल ! तीस साल पहले कितने ही गाँवों के सरपँच रहे ...निष्पक्ष फैसले और राजा जैसे दिल के साथ सबका आदर-सत्कार | प्रसिद्धि तो सितारों का खेल होती है , उस वक़्त सँचार के ज्यादा साधन नहीं थे ...उसी वक़्त में अपने वचन पर स्थित रहने की, अनुशासन की , फराखदिली की असली पहचान हो सकती थी | खामोशी के साथ वो समाज के लिए उदहारण का सा जीवन जी कर गए |
२४ मार्च , कितने ही लोगों की तरफ से व सामाजिक संस्थाओं की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित की गई | उनकी छोटी पोती ने अपनी लिखी हुई डायरी के अँश सुनाये , जो बेहद सँवेदनशील थे कि जब वो छोटी थी कैसे दादा जी उसके व भाई के रिजल्ट पर खुश हो कर उन्हें टोकन दिया करते थे और वो हर दिन उनके बाहर से आने का इंतजार किया करते थे ....फिर कैसे एक दिन कॉलेज से आने पर उनके आई.सी.यू.में भर्ती होने का समाचार मिला , मिलने गई तो वो ऑक्सीजन मास्क हटा कर कुछ कहना चाह रहे थे ....हाथ उठा कर आशीर्वाद देना चाह रहे थे , मगर हाथ उठा नहीं पा रहे थे और मिलने का वक़्त ख़त्म हो चुका था | और वो होंठ जो कुछ कहना चाह रहे थे ....नीले पड़ गए ..... |
मैंने चाचा जी के लिए कुछ कवितायें लिखीं थीं पर वहाँ उठ कर बोली नहीं .......
आख़िरी सफ़र है
हुजूम है साथ आया
अन्तिम विदाई देने
तोड़ के तिनका
हो जायेंगी राहें अलग
साथ छूटा मोह भी तोड़ लिया
दूर मक्खियाँ भिनभिनाने का सा स्वर
चेतना लौटी है
आह, कैसा ये सफ़र , मुँह मोड़ लिया
माली ने गुलशन था खिलाया
दिन , महीने और साल गुजर जायेंगे
छाया तो होगी मगर , बस आप नजर न आयेंगे
२२ जुलाई २००१ मेरी माँ की आख़िरी रात ....जब उन्हों ने दुनिया छोड़ गए मेरे भाई बहनों और छोटे चाचा जी को याद कर कहा था ....एक एक कर चारों चले गए ....उस वक़्त मैं लिखा नहीं करती थी ...पर आज वही पंक्ति मेरी कविता की पहली पंक्ति बनी .....
एक एक कर चले गए
कुछ जाने को तैय्यार खड़े
पदचाप काल की सुन कर भी
हम सारे चुपचाप खड़े
अन्त हुआ उस युग का भी
छत्र-छाया में जिसकी थी पले
मोल अतीत का उतना ही
जितना ये अपने प्राण जले
गुम जाते हैं चेहरे तो मगर
कर्म सदा बोलते ही खड़े
प्रतिपल वो दुहाई देते हैं
जिन्दा रहते हैं अहसास बड़े
मेरे भाईजी ने अन्तिम श्रद्धांजलि दी और वो किस्सा भी सुनाया जब पन्त नगर यूनिवर्सिटी की सीनियर सिटीजन सोसाइटी ने चीफ-गेस्ट के तौर पर मेरे पिताजी को बुलाया था | उस गोष्ठी में सबने अपने बच्चों के व्यवहार पर खेद जताया था और कहा था कि बच्चों को बड़ा कर देने के बाद जायदाद का हिस्सा नहीं देना चाहिए | आखिर में , चीफ-गेस्ट होने के नाते पिता जी ने अपने विचार रखे कहा कि मेरे बुजुर्ग भाई नौकरियों के सिलसिले में अपने माँ-बाप से दूर रहे हैं , शायद इसलिए इनके बच्चों ने इन्हें अपने दादा दादी ( माँ -बाप ) की सेवा करते नहीं देखा , तभी ये संस्कार इनके अन्दर नहीं उतरे | मैं कैसे कह दूं कि बच्चों को कुछ नहीं देना चाहिए , मैनें अपने लिए कुछ नहीं रखा , पर मेरे बच्चों को छोड़ो , मेरे भतीजों के बच्चे तक मेरी सेवा करते हैं ....मेरे भाई जी ने कहा कि गर्व से मेरा सीना चौड़ा हो गया | इसके बाद भाई साहब ने मेरी लिखी हुई कविता ये कह कर सुनाई कि इसे मेरी छोटी बहन ने लिखा है ....मैंने कभी कुछ बेटियों को ये कहते सुना था कि मायका माँ-बाप से ही होता है ..बस मन ने कुछ रच डाला था .....
माँ गईं ,पापा गए
भाई ने गले से लगाया तो
मायका कायम है
बचपन यादों की मुट्ठी में
सँग-सँग आया
मायका कायम है
जाना होता है सबको ही
छाया हो घनी तो
मायका कायम है
मुश्किल से मुश्किल मोड़ों पर
जोड़ेगा , उठाएगा ढालों पर
मायका कायम है
भाई ने गले से लगाया तो
मायका कायम हैइसके साथ ही भाई साहब ने कहा कि उनके संस्कार बने रहने चाहिए ...वो मर कर भी अमर हो गए हैं |
अहसास ही वो शय है जो कविता में जीवन का रँग भरता है |