बुधवार, 30 दिसंबर 2009

पिता जी को एक अंजुली श्रद्धा की

हैबोकी , उकाड़ा जिला मिंटगुमरी ( अब पकिस्तान में ) , १९२० के आसपास का कोई साल , एक बालक का जन्म हुआ , माँ ने तमन्ना की कि ये बालक सारे गाँव का चौधरी बने और नाम रख दिया 'चौधरी |' १३ , १४ साल की उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया | अपने से छोटे पाँच भाई बहन .....सबसे छोटा भाई छह महीने का .... छठी क्लास में पढ़ते हुए .....माँ ने कहा अपने दोनों ताऊ जी के साथ आढ़त सँभालो | व्यवसाय की समझ सीखते सीखते कब मानवता का पाठ पढ़ गए , पता चला १९४६ तक राजस्थान के एक गाँव में , घर , रुई मिर्चों के खेत , सन्तरे माल्टे के बाग़ खरीद लिए |ताऊ चाचा इस बात के खिलाफ रहे कि हिन्दुस्तान का बँटवारा भी हो सकता है ; इसलिए कोई बँटवारे से पहले उनके साथ नहीं आया | वो सिर्फ अपनी दो शादीशुदा बहनों के परिवारों , अपनी माँ के कुछ रिश्तेदारों , अपने दो बच्चों ,पत्नी , दोनों छोटे भाईयों , एक छोटी बहन और एक भाभी के साथ राजस्थान में आकर बसे | बाकी चाचा बाबा के परिवारों में से या जो कोई भी भारत आना चाहता था उसे बँटवारे के बाद , दबंग लोगों को साथ लेजाकर रातों-रात निकाल लाये | सरहद के पार पास वाले गाँव गए लोगों ने भी जब सन्देश भेजे कि उनकी फलाँ फलाँ चीज पीछे छूट गयी है तो वो उसे बैलगाड़ी में लदवा कर उनके गाँव के पास छुड़वा देते थे | यही बालक बड़ा होकर गाँव का सरपँच बना | दोनों पक्षों की बात सुनकर फैसला देना ; घरेलू , आर्थिक , राजनीतिक कोई भी हो , हर झगड़े को चुटकियों में निपटा देता | निर्णय भी सर्वमान्य होता... सरहद के पास होने की वजह से उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्र में बसने का फैसला लिया|

पूरा नाम श्री चौधरी राम पपनेजा , और ये थे मेरे पिताजी | मेरे घर में गरीब या अमीर को परोसी जाने वाली थाली में कोई भेद नहीं किया जाता था | किसी सम्बन्ध को भुनाया भी नहीं जाता था | अनुशासन , सुरक्षा , मर्यादा की परवाह आचरण में कूट कूट कर भरी थी | उनके छोटे बहन भाईयों और उनके बच्चों ने उन्हें पिता , दादा का ही सम्मान दिया | मेरी माँ से सदा ' तुसी तुसी ' (आप ,आप ) कह कर बात करने वाले , मेरे निडर , रोबीले पिता भारतीय जनता पार्टी के पहले जिला अध्यक्ष चुने गए | जनसँघ में रहते हुए विधान सभा सदस्य का इलेक्शन लड़े और भारतीय जनता पार्टी की तरफ से १९७१ में इलेक्शन में खड़े हुए | जीतना जीतना बेमायने है , क्योंकि उन्हों ने किसी चर्चा , पद या प्रसिद्धि की चाह ही नहीं की थी | वे कभी रुके , झुके , बिके और ही टूटे |

उनकी छह सन्तानों में मैं सबसे छोटी हूँ , बड़े तीन भाई बहनों का असामयिक निधन जीवन का सबसे दुखद पहलू रहा | विपत्ति के समय पता नहीं कौन सी ताकत इंसान को चलाती है | सबको साथ रखने का , अपने कर्तव्य निभाने का , स्नेह से गले लगाने का जज्बा ही शायद विपत्ति में ताकत बन कर उभरता है | जुलाई २३ , २००१ को माँ भी चलीं गईं , दिसंबर २००१ में ही पिता जी को दो हार्ट अटैक साथ साथ आए | जीवन की संध्या में तकलीफ में भी उफ़ तक की , बस सबको आशीर्वाद ही देते रहे | १७ दिसंबर २००९ को उनका देहावसान हो गया | वो हमारे क्या , बहुतों के दिलों में जिन्दा रहेंगे |

लो गया , गया , वो गया
इक स्वर्णिम युग चला गया
इतिहास ने पन्ना पलट दिया
निश्छल जीवन , बेबाक नजर ,
उज्जवल वाणी का रूप गया

कितनों को थे समाधान दिए
कितनों को रोजी रोटी दी
न्याय तराज़ू लिए हुए
स्वहित में कंटक सेज चुनी

अधिकारों की गाथा कहता है
अपनत्व जो उनको सबसे मिला
पगड़ी जो पहनी उसूलों की
फिर दोष कोई ढूंढें मिला

सम्मान भी रक्खा रिश्तों का
कर्तव्यों की बन पहचान रहे
मानव के इस चोले में
विक्रमादित्य से राजा राम रहे

आयेंगे कभी अब लौट के वो
नहीं नहीं , वो तब-तब आयेंगे
जब-जब हम अपने जीवन में
मानवता का भाव जगायेंगे

वो आयेंगे , वो आयेंगे , वो आयेंगे
निश्छल जीवन , बेबाक नजर ,
उज्जवल वाणी का रूप लिए
वो आयेंगे , वो आयेंगे , वो आयेंगे

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

कल तो थी उँगली पकड़े


९ दिसम्बर , बेटी का जन्मदिन

तेरी आँखों से देखे सपने
तेरी नजरों से देखी दुनिया
कल तक तो थी पकड़े उँगली
आज सपनों के पँख उधार दिये

बचपन के दिन तो यूँ गुजरे
हँसते रोते , मेरी मुनिया
दस्तक जो दी इस यौवन ने
फूलों की डाल निहाल हुई

सँग तेरे गुजरे गलियों से
आड़ी टेढ़ी है ये दुनिया
किलकारी तेरे बचपन की
जिन्दा है आज भी जहन में
सँग सपनों का सँसार लिये

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

मैं हूँ एक परिन्दा

मैंने देखा कि मैं हूँ एक परिन्दा
जल थल है मेरे क़दमों में
और पँखों में सिमटा नभ है
नन्हीं नन्हीं मेरी उड़ानें
दिखता सारा जग है
मिल जुल कर सब साथी उड़ते
कोई बन्धन कहीं नहीं है
मैं उड़ता सागर की लहरों के ऊपर
आसमान की बाहों में
हर बार पलट आता हूँ
धरती के उसी घरौंदे में
जो जोड़े मुझको धरती से
मेरी अपनी खुशबू
मेरे अपनों का अपनापन
मेरी यादों का पुलिन्दा
है मेरी उड़ानों का परिन्दा

रविवार, 15 नवंबर 2009

सबक अभी बाकी है

प्रेम ही रास्ता खोलता है , निर्मल आकाश का
वरना तंग गलियों में कहाँ गुजर बाकी है

छिल जाता है जिगर , घबरा के मुँह फेरता है जमीर
धड़कनें साँसों से कहती हैं , सफर अभी बाकी है


मोहरे बने हैं हम , खाता खुला है कर्मों के हिसाब का
जिन्दगी मुस्करा के कहती है , सबक अभी बाकी है


प्रेम की क्षीण किरण मुस्कराती है , हूँ तो लता सी
जान पे बनी है मगर , साँस लेने की ललक अभी बाकी है


सबक बाकी है , रात का कोई पहर अभी बाकी है
ललक बाकी है , आसमाँ की महक अभी बाकी है

रविवार, 8 नवंबर 2009

सुन्दर सा ज्यों मुखड़ा कोई गुलाब का



नौ नवम्बर ०९ , आज बेटे का बीसवाँ जन्मदिन है , छोटा सा था जब माउन्ट आबू में बेटियों की राजस्थानी ड्रेस में फोटो खिचवाई थी , तो इन्हें भी कहा कि राजस्थान की पारम्परिक ड्रेस में एक फोटो खिंचवा लो ; सिर हिला कर कहने लगे कि नहीं ये नहीं पहनूंगा ,  फ़िर ख़ुद ही कहने लगे कि यहाँ पुलिस वाली ड्रेस भी है उसको पहनूँगा  ,ये फोटोग्राफ उस वक़्त का ही है।

ये कविता अमरउजाला के बच्चों वाले कॉलम के लिए लिखी थी , पर याद तो अपने ही बेटे को कर रही थी।   प्रस्तुत है .....

तू फूल है मेरे बाग़ का
सुन्दर सा ज्यों मुखड़ा कोई गुलाब का


पढ़ लिख के बन जाना
तू कोई नवाब सा


बन जाना तू प्रेम और
भाईचारे की मिसाल सा


मुश्किलों से न घबराना
सिपाही है तू जाँबाज सा


रास्ता तेरा महफूज हो
ममता की ठण्डी छाँव सा


तू मुस्कराता है , घर
खिल जाता है किसी बाग़ सा


महकाना तू दुनिया को
स्वर्ग सा , इक ख्वाब सा


बहारों को न्योता दे दिया
गुलशन को है इन्तजार सा


तू फूल है मेरे बाग़ का
सुन्दर सा ज्यों मुखड़ा कोई गुलाब का

बुधवार, 4 नवंबर 2009

सोने दे मुझे शब भर को

सोने दे मुझे शब भर को
कितनी है कीमत अपनों की
आराम की कीमत कितनी है
आँसू न कर पाये कीमत
उधड़ा है जिगर
सिलाई की कीमत कितनी है
सब्र कितने वक्त का , ये बता
ये सफर है या मुकाम
आड़े वक्त के साथी ,
क्या यही है मेरा ईनाम
सोने दे मुझे शब भर को

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

दीपमलिके



दीपमलिके , हम तेरे इन्तजार में
घर सजा के बैठे रहे
मन भी है सजता यूँ ही
इस बात से अछूते रहे
होती है दीवाली किसी की
उपहारों से भरी
हो जाते हैं उनमे ही गुम
और किसी की यूँ दिवाली
तेल है रुई बाती
हो जाए बत्ती ही गुल
स्वागत हैं करते जलते दियों का
है नहीं मोल जलते प्राणों का कोई
घर में हैं करते ढेरों प्रकाश
प्रार्थना करते हैं , बसें
स्थाई हमारे घर में श्री लक्ष्मी गणेश
मन नहीं करते हैं स्वच्छ
करें अंतरात्मा में प्रकाश
टिम टिम कर जलते दिये
छू लें जो मन का कोना
हजारों दियों सी हो रोशनी
कई पूनम सी हो जाए
अमावस की काली रात
मन भी है सजता यूँ ही
इस बात से अछूते रहे

शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

अपना अपना जोग भया

दुख दारु सुख रोग भया
दारु दारु उन्माद हुआ

दुख न हुआ प्रमाद हुआ
गीतों में ढल कर शाद हुआ


किर्चों से मिल कर नाद हुआ
खुशबू में बँट आबाद हुआ


दुख दारु सुख रोग भया
अपना अपना जोग भया

शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

टिम-टिम करती मेरी आशा का


जुगनू की तरह मेरी आशा
बुन लेती है सन्सार पिया


मेरी आँखों में पाओगे
तुम अपना ही तो सार पिया


दिल में मैं छुपा के रख लेती
ये जग काँटों का हार पिया


अट जाये फूलों से रास्ता
ऐसा हो तेरा घर-द्वार पिया


छल किया है किस्मत ने मुझसे
कैसे कह दूँ इसे दुलार पिया


हर बार ये कहती जरा धूप है
ऐसा हुआ न पहली बार पिया


दुख पकड़ा नहीं , सुख ढूँढा किए
अपने हाथों में है सितार पिया


टिम-टिम करती मेरी आशा का
ये ही तो है विस्तार पिया



बुधवार, 2 सितंबर 2009

निष्ठुर छल गया जीवन

एक मित्र के पिता के दुनिया से चले जाने के बाद , मित्र की माँ जब जब मुझे मिलीं रोईं जरुर , जैसे अतीत के गले लग आईं हों | क्या हमने कभी बुढापे की आँख से जिन्दगी को देखा है ?
जीवन के उत्तरार्ध को
जाता हुआ जीवन
साथी भी साथ छोड़ गए
निष्ठुर छल गया जीवन

काँपते हाथ और जज्बात
लाचार नहीं , आधार नहीं
मेरे हाथों में सँसार नहीं
यूँ गल गया जीवन

बोझ यादों का भी है
सीने में सुलगता दावानल
सैलाब है बहता आँखों से
है हिल गया जीवन

वो कौन सी चीज है
जो चलाती है जीवन को
डोर टूटी तो पतझड़ आ गया
निष्ठुर ढल गया जीवन

बुधवार, 26 अगस्त 2009

कैसे खो दूँ मैं तुझे


एक बड़ी ही प्यारी मित्र ने कुछ ऐसा किया जो हमारे रिश्तों में कडुवाहट घोलने के लिए काफी था | ऐसे वक़्त में कुछ इन पंक्तियों से ख़ुद को समझाया.....
आँसू आ के रुक गया
आँख की कोरों पर 

कैसे नाराज हो जाऊँ
मैं तुझ से गैरों की तरह


दुःख तो होता है
तेरी बेरुखी पर


कैसे खो दूँ मैं तुझे
भीड़ में लोगों की तरह


फूल भी अपनों के मारे हुए
लगते हैं शूलों की तरह


कैसे खो दूँ मैं तुझे
राह में भूलों की तरह


तेरी यादें मुझे यूँ भी
उम्र भर सतायेंगी


कैसे खो दूँ मैं तुझे
गुजरी हुई बातों की तरह

बुधवार, 19 अगस्त 2009

लगती है एक उम्र


इतने कड़वे सचों का सामना करना आसान नहीं है , वास्तविक जिन्दगी में पत्नी के सच बोलने पर नोएडा का एक पति पँखे से लटक गया और एक ने पत्नी के गले पर ब्लेड मार मार कर मारने की कोशिश की | ऐसे सच को बर्दाश्त करना इसीलिये मुश्किल हो गया है क्योंकि इन्सान अपने किए गुनाह को भी गुनाह नहीं समझता और दूसरों से हुई गल्ती को भी गुनाह का दर्जा देता है | किसी तरह भी माफ़ नहीं करता | ऐसे सच बोल कर क्या इनाम पाया ?
दिलों को न तू तोड़ना
बोल देना झूठ भी
है एक अदालत और भी
श्वासों की कद्र कर 


लगती है एक उम्र , आशिआना बनाने में
कैसे कर देगा अपने ही हाथों , तिनका तिनका बिखराने में
सच बोलना है ख़ुद से बोल
न मोल भाव कर


कुछ ऐसे सच हैं अगर
सीख ले , भूल जा वो बेडियाँ
हिल जायेंगी तेरी ईंटें
आँधियों में सँभाल कर


शाश्वत है सत्य जीवन
जिन्दा हैं इनकी रूहें
बोलना तू मीठे बोल से
निवालों को तौल कर
दिलों को न लताड़ना
जीवन की कद्र कर


{' कैसे करें सच का सामना ' भी इसी मुद्दे पर लिखी गई कविता है (इसी ब्लॉग पर )}

सोमवार, 17 अगस्त 2009

मैं कह न पाऊँ अगर ......


मैं कह पाऊँ अगर ......
मेरी मूक जुबाँ समझ लेना
मेरी दुआओं का असर समझ लेना
तेरे आस-पास मन्डराता हुआ , मेरा प्यार जान लेना
तुम नज़रों में बाँध लेते हो
कुछ यूँ वक़्त थाम लेते हो
अपने बारे में भी कुछ जानते हो !
कहने सुनने से बहुत आगे
नज़रों का सँसार हुआ करता है
दिल की जुबानों को तुम समझ लेना
मैं कह पाऊँ अगर .........

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

निरीहों को क्या मालूम

मेले के दिनों में शहर से बाहर निकलते ही देखा कि एक चरवाहा बकरियों को हाँकता हुआ शहर की तरफ़ ला रहा है , पहला ख्याल दिल में यही आया कि ये या तो धर्म के नाम पर बलि चढेंगी या दुकानदारों और होटल वालों को बेची जायेंगी , आख़िर हश्र वही है
अय्यड़ को हाँका है शहर की ओर
निरीहों को क्या मालूम
चलना है सहर की ओर


भेँट चढ़ना है
धर्म का या स्वाद का जोर
खिलाता था , पिलाता था
मण्डी में बोली लगाता था
खून सने हाथ
सफाई पसन्द हैं
ताने-बाने बुनते दिमाग
पाक हैं , सलीका पसन्द हैं


कब्रिस्तानों से पेट
अटे हैं अपनी वफाओं से
आदमी के मुँह खून लगा
जँगल हो या शहर
एक ही बात है
निरीहों को क्या मालूम
चलना है सहर की ओर