ज़िन्दगी कुछ यूँ ही गुजर जाती है ,साल भर के तीज-त्यौहार , व्रत-पर्व ,दिन-महीनों को तारीख़ों की तरह गिनते-गिनते
स्कूल-कालेज, जॉब ,शादी ,बच्चे ,चोट-चपेट के सालों को उँगलियों पर गिनते-गिनते
किसने दिल दुखाया , किस-किस ने मन को उठाया , किस-किस ने साथ दिया , ये भी याद है क़िस्से-कहानियों की तरह गिनते-गिनते
गर्मी से सर्दी ,सर्दी से गर्मी , मौसम के बदलते तेवर ,फुर्सत के पलों में तन्हाई में मचा शोर ,किसने देखा-समझा है , उम्र की साँझ को ढलते-ढलते
उम्र तो यूँ ही गुज़र जाती है ,जुदा-जुदा हैं कहानियाँ , जुदा-जुदा हैं अहसास ,मगर दर्दे-दिल की ज़ुबाँ तो है एक सी ही , कहते-सुनते
हम्म , उम्र तो गुज़र ही जाती है ।
जवाब देंहटाएंव्यस्तता बनी रहे। कुछ गिले रहें कुछ शिकवे रहें। जिन्दगी रुकनी नहीं चाहिये बस इसी मौज में चलती रहे।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(३०-०९ -२०२२ ) को 'साथ तुम मझधार में मत छोड़ देना' (चर्चा-अंक -४५६८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
शुक्रिया अनिता जी , मैं चाह कर भी अपने गूगल अकाउंट से टिप्पणी नहीं दे पा रही । सेटिंग्स गड़बड़ हैं । Sharda Arora
हटाएंवाह शारदा जी !
जवाब देंहटाएंएक पुराने नग्मे की एक लाइन याद आ गयी -
'थोड़े शिक्वे भी हों, कुछ शिकायत भी हो,
मज़ा जीने का और भी आता है ---'
किसने देखा-समझा है , उम्र की साँझ को ढलते-ढलते ....
जवाब देंहटाएंसही कहा क्योंकि जुदा-जुदा हैं कहानियाँ , जुदा-जुदा हैं अहसास...
सार्थक एवं सारगर्भित।