रविवार, 14 दिसंबर 2008

इन्सानी से जज्बों के संग

खिलौना बन गये वहशत की ताकतों का
अपना जमीर सुला दिया , मजहब का मतलब ग़लत उठा लिया

बेशकीमती है ये , जिन्दगी को क्यों गिरा दिया
मशीनी इंसान की तरह , कहर क्यों बरपा दिया

तेरा लहू लहू है , क्या उसका लहू पानी है
जब होगी जिन्दगी , कैसे देखेगा अपने जनाजे के बाराती

सेहरा तेरा छलावा है , कफ़न लिए खड़े हैं , मोहरे बने तेरे साथी
अपनी कब्र खोद कर , ख़ुद ही कदम बढाया है

जो पाक-साफ़ है तो छुप कर के क्यों आया है
जो बो रहा है वही फसल तो काटेगा

कैसी शहादत है , दो गज जमीन को तरसे
खिलौना बन गया , कमान तेरी दूसरों के हाथ है

लता है तू जैसे रोबोट , माथे में बजते टेप के साथ है
वही तो पाते हैं न्यामतें , जिंदा हैं जिनकी रूहें ,इन्सानी से जज्बों के संग

चिराग बुझाए बैठे हो , उजाले का वहम पाल के ,
चलोगे कैसे इतने अंधेरों के संग

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भाव भरी रचना.. बहुत सी सच्चाईयों को आपने शब्दों में ढाला है.. इन अंधेरी राहों में हमें ही चिराग जलाने हैं चाहे उसके लिये हाथ जलाने पडें..तभी अंधेरा मिटेगा

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  2. -आप के ब्लोग पर पहली बार आई हूँ ,
    आप की रचना पढ़ी ,अच्छी लगी,सामयिक है और चिंतन दर्शाती है.

    नमस्ते शारदा जी,
    बहुत ही प्रसन्नता हुई आप को अपने ब्लॉग पर देख कर.
    आप को अपनी ब्लॉग लिस्ट में अदद आकर रही हूँ ताकि आप की रचनाएँ मिस न हों.
    आप को धन्यवाद मेरा टूटा -फूटा गायन पसंद करने के लिए.
    आभार सहित -अल्पना

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  3. -आप के ब्लोग पर पहली बार आई हूँ ,
    आप की रचना पढ़ी ,अच्छी लगी,सामयिक है और चिंतन दर्शाती है.

    नमस्ते शारदा जी,
    बहुत ही प्रसन्नता हुई आप को अपने ब्लॉग पर देख कर.
    आप को अपनी ब्लॉग लिस्ट में add कर रही हूँ ताकि आप की रचनाएँ मिस न हों.
    आप को धन्यवाद मेरा टूटा -फूटा गायन पसंद करने के लिए.
    आभार सहित -अल्पना

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  4. कोई सुना आए उसे , इसे मैंने उग्रवादी के लिए लिखा है | उसका रिमोट दूसरों के हाथ में है , अपने जैसों का हश्र देख कर भी वो अपनी आत्मा की आवाज क्यों नहीं सुनता |

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आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है