रविवार, 21 जनवरी 2024

जीने का जज़्बा

अरमाँ की तरह जो संग चले 

बाहों में वो कुछ यूँ भर ले 

जैसे कोई अपना होता है 

जैसे कोई सपना होता है 

कानों में वो कुछ यूँ कहता 

धरती अपनी ,दुनिया अपनी 

मेरे संग खिले , मेरे संग जगे


जीवन की कोई परिभाषा 

कोई मापदण्ड होता है भला 

पकड़ो तो कोई ऐसी बात 

गुड़-चीनी की तो बात ही क्या 

मीठी सी खीर हो जैसे कोई 

भीनी सी ख़ुशबू संग लिए 

दिन-रात पगे ,हर पल महके 


शनिवार, 20 जनवरी 2024

तू हर सू है छाया

तू पत्ते-पत्ते में ,हरी डालियों में 

तू ही तो झूमता है ,गेहूँ की बालियों में 


तू ही प्रेरणा में , तू ही वन्दना में 

तू ही बजता है , समय की तालियों में 


तू नस-नस में ,रग-रग में 

प्राण बन के बहता है , मेरी धमनियों में 


तू ही है चन्दा की चाँदनी में 

तू ही चमकता है हर पहर,सूरज की लालियों में 


है तो हर तरफ़ हमारा ही कोई हिसाब 

उलझे हैं हम अपने ही ,कर्मों की पहेलियों में 


तुझे देखने को चाहिए , इक नूरानी सी नज़र 

तू हर सू है छाया ,जड़-चेतन की हैरानियों में 


सोमवार, 28 अगस्त 2023

सखी-सहेलियों जैसे रिश्तों के लिये

सइयो नी , सइयो नी 

आ दुक्खाँ दे लीड़े धो लइये 

कुझ कह लइये , कुझ सुन लइये 


तेरे वेहड़े धुप्प ही धुप्प 

मेरे वेहड़े छाँ कोई ना 

कट जायेगा रा नाल-नाल चल लइये 


दिल दी हवाँडाँ कदे वण्डियाँ ना 

अक्खाँ दे ज़रिये जो उतरन 

आ रूहाँ दी कुण्डियां खोल लइये 


सइयो नी , सइयो नी 

आ दुक्खाँ दे लीड़े धो लइये 

कुझ कह लइये , कुझ सुन लइये 


आओ कभी फुर्सत में बैठें 

यादों के ताने-बाने खोलें 

दुखती रगों के तार ढीले कर लें 


हौले से छू लें दिल को जो 

उन ठण्डी हवाओं के सदके 

थोड़ा-थोड़ा आराम मिले 

कुछ ऐसे झूले में झूलें 


सहरा में पानी होता कहाँ 

इक दोस्त ही है जो मशक लिए 

थोड़ा-थोड़ा पानी बख़्शे 

राहों के हादसे तो धो लें 


आओ कभी फुर्सत में बैठें 

यादों के ताने-बाने खोलें 

दुखती रगों के तार ढीले कर लें 


सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

हमारी पीढ़ी बहुत एक्सप्रेसिव नहीं है

 हम फ़िफ़्टीज़ ,सिक्स्टीज ,सेवेंटीज के लोग 

हमारी पीढ़ी बहुत एक्सप्रेसिव नहीं है 

हम वाओ ,मार्वलस कह कर एक्सक्लेमेशन मार्क्स वाले रिएक्शन नहीं देते 

हम तो बस हैरानियों पर चुप से , जड़ से ,मूर्तिवत खड़े हो जाते हैं 

तुम समझ सको तो समझ लो 

हमारी आँखों से टपकती हुई कृतज्ञता , प्यार और हैरानी जान सको तो जान लो 

हम तो बस तुम्हारे आस-पास रहना चाहेंगे 

जो कुछ हमें हासिल है , हाजिर कर देंगे 

हमारी सारी दुआएँ तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमती हैं , जान सको तो जान लो 

तुम जब भी ख़फ़ा होगे , हम चुप ही नज़र आयेंगे या चुपचाप रो देंगे 

मगर हम नाराज़ नहीं होते 

क्योंकि अपने-आप से भी भला कोई ख़फ़ा होता है  ?

जान सको तो जान लो 

ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा , हम कोई कविता लिख देंगे 

मन तो हमारा भी गाता है ख़ुशी में , रो देता है ग़म में 

हमारी आँखों से बोलता हुआ मौन पढ़ सको तो पढ़ लो 

हमारी पीढ़ी बहुत एक्सप्रेसिव नहीं है 



बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

तुम ऐसे मिलना

मेरे बच्चों , जब भी मिलना , कुछ ऐसे मिलना 

जैसे बिछड़ी हुई डालियाँ तने से मिलें 

ये जान लो कि रिश्तों की गर्मी भी हमें चलाती है 

ये वो शय है जो बाज़ार में बिकती नहीं , न ख़रीदने से मिले 


जड़ों को सींचोगे तो रहोगे हरे-भरे 

थक के बैठोगे तो यही छाँव सहलायेगी तुम्हारी शिकनें 

कर लो रौशन , कर लो रौशन अपनी दुनिया 

ये उजाले न फिर ढूँढने से मिलें 


इक बूटा लगाया है , छाँव की दरकार मुझे 

तुम इस तरह मिलना के जैसे रूह रूह से मिले 

कामना की अँधी दौड़ में , भूल न जाना खुद को ही 

जब भी मिलो इस तरह मिलना के जैसे अपने-आप से मिले 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

' माँ '

' माँ ' पर कविता

ज़िन्दगी भर बचपन बोला करता

यादों की क्यारी में माँ का चेहरा ही डोला करता

भूले वो माँ की गोदी , आराम की वो माया सी

जीवन की धूप में घनी छाया सी

पकड़ के उँगली जो सिखाती हमको , जीवन की डगर पर चलना

हाय अद्भुत है वो खजाना , वो ममता का पलना

गीले बिस्तर पर सो जाती , और शिकायत एक नहीं

चौबीस घंटे वो पहरे पर , अपने लिये पल शेष नहीं

होता है कोई ऐसा रिश्ता भी , भला कोई भूले से

छू ले जैसे ठण्डी हवा , जीवन की तपन में हौले से

मन भूलता है वो महक माँ के आँचल की

वो स्वाद माँ की उँगलियों का

जीवन भर साथ चले जैसे , उजली उजली

दुआ ही दुआ , विष्वास बनी वो फ़रिश्ता सी

बुधवार, 28 सितंबर 2022

उम्र तो यूँ ही गुज़र जाती है

 ज़िन्दगी कुछ यूँ ही गुजर जाती है ,साल भर के तीज-त्यौहार , व्रत-पर्व ,दिन-महीनों को तारीख़ों की तरह गिनते-गिनते 

स्कूल-कालेज, जॉब ,शादी ,बच्चे ,चोट-चपेट के सालों को उँगलियों पर गिनते-गिनते 

किसने दिल दुखाया , किस-किस ने मन को उठाया , किस-किस ने साथ दिया , ये भी याद है क़िस्से-कहानियों की तरह गिनते-गिनते 

गर्मी से सर्दी ,सर्दी से गर्मी , मौसम के बदलते तेवर ,फुर्सत के पलों में तन्हाई में मचा शोर ,किसने देखा-समझा है , उम्र की साँझ को ढलते-ढलते 

उम्र तो यूँ ही गुज़र जाती है ,जुदा-जुदा हैं कहानियाँ , जुदा-जुदा हैं अहसास ,मगर दर्दे-दिल की ज़ुबाँ तो है एक सी ही , कहते-सुनते