बुधवार, 28 अप्रैल 2010

तू जो है सबसे करीब

नीचे लिखी कविता में ...सबसे करीब ...जिसके लिए लिख रही हूँ , मेरी भान्जी...बड़ी दीदी की बेटी और मैं सबसे छोटी मासी । उसकी आँखों से जैसे तीव्र बुद्धि टपकी पड़ती थी । चेन्नई की इंजिनियर , अमेरिका से ऍम एस और फिर वहीं जॉब , आजकल डेप्युटेशन पर अपने हस्बैंड के साथ सिंगापुर में ....उसके बच्चे भी काफी बड़े हो चुके हैं । पिछले दिनों सिंगापुर में एक मीटिंग में मेरी माँ यानि अपनी नानी के लिए जो कुछ उसने कहा , उस की ही मुझे लिखी हुईं पंक्तियाँ यहाँ पेस्ट कर रही हूँ । ( माता जी पिता जी , उसने अपने नानाजी नानी जी के लिए लिखा है )
Mataji and Pitaji were very dear to all of us। Their example in their life, their sacrifice for their children will always be like a guiding light. I had given a talk on Indian women to a group of people very recently about 3 months ago. I had especially shown a picture of Mataji and explained what a wonderful women she was and how the life of women has changed over time in India. Thing that I told which I felt was the best thing about her was like this - when I would land in my grandmothers village, I would run all the way to her house, to get the "best hug in the world". How can one forget that?
कविता पेश है ....
तू जो है सबसे करीब
सात समुद्रों की दूरी है
तेरी आँखों की सुनहली चमक
नूर है कुदरत का
या अपनों से मिलने की खनक !
तेरा बचपन , मेरा कैशोर्य , है तेरी सुगँध से सराबोर
वो सबसे अलग घर के कोने तलाशना
कि कह डालें वो सब , जो गुजरा है साथ
ऐसी तू रकीब
वो खुशी का झरना सा फूट पड़ना
कि रह रह के हर बात पे , हँसी का तोहफा पाना
वो बाग़ में शीशम के तले ,
के के का पहला पहला ख़त तुझसे साझा करना
बेइन्तिहाँ बातों में लगता कि कोई है सुनता
वो घबरा के घर को लौट आना
और फिर बातेँ बनाना
है आज भी ताज़ा ,
ऐसी तू करीब
समय के अन्तराल पर , नहीं रहता सब कुछ वैसा
तारे तोड़ लाने की ख्वाहिशों में ,
बहुत कुछ है छूट जाता
वक़्त ने तराशना है ,
ज़मीनी दूरी हो कितनी भी
यादों के दियों में मुस्कराती हो
आकाश में चन्दा सी उतर आती हो
ऐसी हो अमीर
तू जो है सबसे करीब


हम सबके पास ऐसे यादों के खजाने (treasure hunt) होते ही हैं ....

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

अब आगे तपस्या होगी

मैं उससे मिली थी , कभी घूमते वक़्त रास्ते में पतिदेव ने परिचय कराया था , ये हमारे बैंक में कम्पनी सेक्रेटरी हैंपरसों रात खबर मिली , ट्रेन से उतरते वक़्त ट्रैक में फँस जाने से उसकी दोनों टाँगें......लेखनी लिखने से इन्कार कर रही है , दिलासे के लिए भी शब्द नहीं हैंजीवन जैसे एक ज्ञ हो और जिन्दगी ने किसी बहुत ही जरुरी चीज की आहुति माँग ली होईश्वर तुम्हें असीम आत्मिक बल प्रदान करेंये भी तुम्हारी ही हिम्मत थी कि हादसे के बाद भी खुद ही फोन म्बर बता कर घर सूचित कर सके

अब आगे परीक्षा होगी
अब आगे तपस्या होगी
दिल को फूलों पर ही चलना भाता है
काँटों पर कैसे बसर होगी
हर मोड़ पे खाई है कब समझा है कोई
पगडंडी पर भी गुजर होगी
चोट खाता है तो रोता है दिले-नादाँ
अश्कों में कैसे बसर होगी
सैलाब में डूबे तो किनारा कोई नहीं
साहिल पर भी तेरी नजर होगी
फूल-कलियाँ-काँटे , कम-ज्यादा , झोली भर बाँटे
अपनी राहों पर भी नजर होगी
तुझको चलना है तूफाँ में रौशनी लेकर
हौसले में ये आँधी भी बेअसर होगी

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

बुलबुलें जाने लगी हैं

एक हफ्ते की छुट्टी लेकर दोनों बेटियाँ घर आईं , चौथे दिन से ही उल्टी गिनती का अहसास होने लगा था , मन पहले डूबा , फिर हौले से तैर कर ऊपर आया और खुद को समझाते हुए जग से कदम मिलाते हुए चलने लगा | इस प्रक्रिया को इस कविता में सहज ही महसूस किया जा सकता है | भावुक मन की समझदारी भी इसी में है .....
बुलबुलें जाने लगी हैं
वीराने की आवाजें आने लगी हैं
मीलों चलना होता है सहराँ में
अपनी नमी घबराने लगी है
किनारे तोड़ने को फिर बहाने आ गए
बरसाती नदिया बेतहाशा छलकाने लगी है
खुद से अलग हो कर भी कोई चल है पाता
टुकड़ों में कोई रौशनी जगमगाने लगी है
चहचहाती हैं बुलबुलें यादों में
खुद को देखा , जिन्दगी लौट आने लगी हैं
लौट कर आयेंगे फिर से , फुसफुसाता है गुलशन
उम्मीद फिर बहलाने लगी है
इनके परों ने टोहना है आकाश को
मेरी बेड़ियाँ शर्माने लगी हैं

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

देर उतनी ही हुई है

जागी हुई रात के सोये हुए सपनों
देर उतनी ही हुई है
जितनी दूरी है मेरे रूठे हुए अपनों
पलकों की मुंडेरों पर , थम गये हो
ज़रा ठहरो
कोई जागा है शब भर को
जादू की छड़ी हो तुम
सपने सब हो जाते अपने
बन्द आँखों में करवट ले लो
सच का रँग भर दो
जागी हुई रात के सोये हुए पाहुनों
देर उतनी ही हुई है
जितनी दूरी है , मेरे अँगना से
तेरे क़दमों की