बुधवार, 29 अप्रैल 2015

रिश्ता ,ऐतबार का

एक माँ की नजर से....
मैंने बहुत चाहा कि 
बनूँ वो रिश्ता ,ऐतबार का 
वो छाँव आराम की 
वो गोद चैन की 
दुनिया से हताहत हो कर भी 
पाओ जहाँ तुम ,वो बाड़ हिफाज़त की 
कहीं कोई कमी न रहे 
मेरी हीरे की कनी 
गुमराह न हो जाना कभी 
दुनिया लुभाती है बहुत 
और रौंद के छोड़ जाती है वहीँ 
रखना वो नजर , जो देख पाये ये सब भी 
सबको देखना एक ही नजर से बेशक 
मगर व्यवहार में सबको निभाना होगा
हर रिश्ते का क़र्ज़ चुकाना होगा 
ऐतबार माँगने से नहीं मिलता कभी 
ऐतबार कमाना पड़ता है 
गुजरे हैं कभी हम भी उसी राह से 
धूप कितनी भी हो ,अपने हिस्से की छाया में बसर करना 
हो सके तो दूसरों के लिये भी छाया बुनना 
हाँ , रखना तुम ऊँचे इरादों पर अपनी नजर 
माँ की दुआओं ने बुना है आसमान 
तुम आ के उड़ानें भरना 

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

आज़ाद हो जाती हूँ

यूँ तो आम धारणा ये है कि लेखन निठल्ले लोगों का काम है। कहीं पढ़ा था कि जब सारी ऊर्जा केन्द्रित हो कर लेखन में उतर आती है , तभी कविता का जन्म होता है। इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि लेखक को एक दिशा मिल जाती है। दुनिया जानती है कि जो बात आम तौर पर नहीं कही जा सकती , वो कविता-गीत के माध्यम से बड़े प्रभावशाली तरीके से कही जा सकती है।
इतनी चुप 
के बर्फ का बूँद-बूँद बन कर , टपकना भी सुनाई दे 
नीरवता में खलल पड़े

ये वही जगह है ,
जहाँ अन्तस में उठता शोर ,मुझे जाता था दबाये 
जब और न कुछ बना सका वक्त मुझे 
तो दी लेखनी थमा 

अब मैं और मेरी लेखनी 
तमाम मुश्किलें , जज़्बात ,ख़्यालात 
लफ़्ज़ों में ढल उठते हैं 
और मैं आज़ाद हो जाती हूँ 
आज़ाद हो जाती हूँ , वक्त की गिरफ्त से भी