सोमवार, 27 जुलाई 2009

कैसे करें सच का सामना


कैसे करें सच का सामना


ये पकड़ता है वही रग , जो बड़ी कमजोर है


है बुलन्दी पर सितारा


खुश हैं हम , कामना पुरजोर है


दफ़न है सीने में कुछ


कैसे कह दें के हम बड़े चोर हैं


अपने दर्पण से भला कैसे छिपायें


दाग हैं , बढ़ी धड़कन , मचा शोर है


जाते उस गली हम , जो ये जानते


चौराहा , कटघरा ही उस गली का अन्तिम छोर है


कैसे करें सच का सामना


रविवार, 26 जुलाई 2009

हरी है वो डाली


छुट्टियाँ बिता कर बच्चों के वापिस लौटने का समय


जो ये दिन आता है तो वो दिन भी आता है
यही कह कर दिलासा देते हैं
जुदाई आती है तो मिलन भी सजता है
खामोश दिये रौशन होते , पतझड़ भी मुस्कराता है
हरी है वो डाली , मौसम तो आने जाने हैं
फ़िर आयेगी रुत मौसमे-गुलदाउदी की
मिलन की आस लिये विष्वास पानी पीता है
विरह किनारे रख के जीता है
कभी तो होगी मेरे मन की
यही कह कर दिलासा देते हैं
जो ये दिन आता है तो वो दिन भी आता है

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

परिन्दा नन्हें परों वाला सो गया


मानसी , बी . ए . प्रोग्राम , हँसराज कॉलेज , दिल्ली यूनिवर्सिटी से किया , पढाई के दौरान पार्ट-टाइम रेडियो जौकी भी रही | इतनी यशस्वी , एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म में एडमिशन लिया , छात्रावास में तीसरे ही दिन बालकनी में फोन सुनते हुए दूसरी मन्जिल से नीचे गिरी | जिन्दगी क्या पानी का बुलबुला है .....एक पल में सब ख़त्म ......हाड़-मांस की गठरी .......बिखरी तो समेटी ही नहीं जाती ?


मेरी बेटी की सहेली की सहेली , क्या गुजरी होगी माँ-बाप पर , अभी तो उसकी उडानें देखनी बाकी थीं और ये क्या कि शक्ल तक देखने से वन्चित , सब ख़त्म हो गया | काश कि जिन्दगी की रील रिवाइंड हो सकती और ऐसे हादसों को हम काट फेंकते |


बतलाओ तो , क्या कह के बहलायें
नीड़ तो है , परिन्दा नन्हें परों वाला सो गया
आसमाँ में , सितारा जगमगा के खो गया
वक़्त को रास न आया , जमीं छोटी पड़ी ,
नन्हें क़दमों का आसमाँ भी खो गया
क़ैद हैं आवाजें तो , शक्ल भी यादों में ,
रास्ता उस तक पहुँचने का खो गया
ढूँढेंगे तुम्हें हम दुलारों में , सितारों में ,
टूटे हैं , किस्मत का सितारा सो गया
परिन्दा नन्हें परों वाला सो गया
बतलाओ तो , क्या कह के बहलायें

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

पहुँचता कोई कहीं नहीं



हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए


हर दिल है आसमान लपेटे हुए


चलते हैं सब मगर


पहुँचता कोई कहीं नहीं


विष्वास है खोया हुआ


रिश्तों में अब नमी नहीं


नजर तो उठती हर तरफ़


भीड़ में चेहरों की कमी नहीं


हाथ तो बढ़ाते हैं


विष्वास साथ लाते नहीं


हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए


हर दिल है आसमान लपेटे हुए

बुधवार, 1 जुलाई 2009

क्या वो बेहतर कविता होती है

बिना अपने जख्म दिखाये जो दर्द कह जाए
क्या वो बेहतर कविता होती है


कमी भी सालती है , निशाँ भी मिटते नहीं हैं
छिपा लेती है जो चीर-फाड़
क्या वो बेहतर कविता होती है 


रिसते हैं जख्म रोशनी में मगर , अंधेरे का
वो भरम पालती है
क्या वो बेहतर कविता होती है


तैरते हैं जो सुख-दुःख जीवन में , हू-ब-हू उतार देती है
उनका प्रतिबिम्ब
क्या वो बेहतर कविता होती है


हर किसी को लगे ये है उसकी ही बात
बदल देती है छू के ये उसके ही तार
क्या वो बेहतर कविता होती है


खुशी की हो या हो गम की बात
थोड़ा कहते ही बयाँ होती हैं गहरी बातें
क्या वो बेहतर कविता होती है