मानसी , बी . ए . प्रोग्राम , हँसराज कॉलेज , दिल्ली यूनिवर्सिटी से किया , पढाई के दौरान पार्ट-टाइम रेडियो जौकी भी रही | इतनी यशस्वी , एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म में एडमिशन लिया , छात्रावास में तीसरे ही दिन बालकनी में फोन सुनते हुए दूसरी मन्जिल से नीचे गिरी | जिन्दगी क्या पानी का बुलबुला है .....एक पल में सब ख़त्म ......हाड़-मांस की गठरी .......बिखरी तो समेटी ही नहीं जाती ?
मेरी बेटी की सहेली की सहेली , क्या गुजरी होगी माँ-बाप पर , अभी तो उसकी उडानें देखनी बाकी थीं और ये क्या कि शक्ल तक देखने से वन्चित , सब ख़त्म हो गया | काश कि जिन्दगी की रील रिवाइंड हो सकती और ऐसे हादसों को हम काट फेंकते |
बतलाओ तो , क्या कह के बहलायें
नीड़ तो है , परिन्दा नन्हें परों वाला सो गया
आसमाँ में , सितारा जगमगा के खो गया
वक़्त को रास न आया , जमीं छोटी पड़ी ,
नन्हें क़दमों का आसमाँ भी खो गया
क़ैद हैं आवाजें तो , शक्ल भी यादों में ,
रास्ता उस तक पहुँचने का खो गया
ढूँढेंगे तुम्हें हम दुलारों में , सितारों में ,
टूटे हैं , किस्मत का सितारा सो गया
परिन्दा नन्हें परों वाला सो गया
बतलाओ तो , क्या कह के बहलायें
बहुत मार्मिक रचना...इश्वर ऐसा क्यूँ करता है...???
जवाब देंहटाएंनीरज
मार्मिक सत्य।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
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www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
marmsprashi rachana,sach zindagi pani ka bulbula.
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक रचना है। सच है कि हम ऐसे हादसों के बाद खुद को असहाय महसूस करने लगते हैं। कभी-कभी तो खुद को दोषी भी।
जवाब देंहटाएंBhabhi ji,
जवाब देंहटाएंRealy its a very heart tuchy poem.
Mukesh Rawal.Kashipur.