अठारह से बाईस साल की उम्र में अमृता प्रीतम के उपन्यास पढ़े थे , उनके पात्रों का दर्द मुझसे सहा न गया | उसके बाद मैंने उन्हें नहीं पढ़ा | डॉक्टर अनुराग के ब्लॉग में मैंने रंजू भाटिया की पोस्ट की हुई अमृता प्रीतम की कवितायें पढीं , वहीं पढ़ा कि किसी किताब को पढ़ कर हर कोई उस सोच की दो बूँद जरूर ले लेता है , शायद मैंने कच्ची उम्र में दो घूँट उतार लिए थे , एक घूँट पी लिया और दूसरा मेरे गले में ही अटक गया , जो न उगला गया न निगला गया | पीड़ा जीवन नहीं है , भागना भी जीवन नहीं है , अमृता प्रीतम की पीड़ा कवितायों की शक्ल में जन्मती रही |मुझे इसका निदान मर्यादित होकर सबसे प्रेम करने में नजर आया | ये तो एक कुंजी हो गई. . किसी के कैसे भी व्यवहार के पीछे कारण स्वरूप परिस्थिति को आप समझ लेते हो तो उससे कैसा रोष ?
उन्हीं के ब्लॉग पर पढ़ कर जाना कि मेरे अवचेतन मन ने अमृता प्रीतम की एक कविता से दो पंक्तियाँ चुराई हुई थीं |कविता हाजिर है
मिल गई थी इसमें आकर
एक बूँद तेरे इश्क कीइसीलिये मैं उम्र की सारी कटुताएँ पी गई
इसीलिये जीवन की सारी विषमताएँ भा गईं
उठते न थे कदम जिन राहों पर
सारी अदाएँ आ गईंसागर का खारा पानी भी
मिश्री से मिल आया कहीं
बिखर जाने का दर्द भूल कर
सिमट आने का पल ही याद है
Amrita preetam ki lagayi aag to na jaane kitne hi dilon mein sulag rahi hai, jo bhi ek baar amrita ji ko padh le phir wo unhi ka hokar reh jaata hai, zindagi bhar saath nibhane ka wada shayad Imroz se hi nahi hum sabhi padhne walon se bhi kiya hai unhone.
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बहुत बढ़िया जी!
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