शनिवार, 30 मई 2009

चलना भूल गया



जब हम किसी से या परिस्थिति से नाराज होते हैं तो पीते हैं कड़वे घूँट यानी नकारात्मकता और पीने वाला होता है हमारा मन


हवाओं में घुला जहर


पीते ही तड़प उठा


जिस घूँट की मनाही थी


गले में ही अटका बैठा


बड़ी पैनी हैं आँखें


सूँघ लेने में मन की


बहुत चाह की आँखें


बंद करके चलने की


कोई तो भेद होगा


अपने रास्तों में


हवाएँ रखने का


कदम कदम पर


ठोक पीट कर


बिन पानी मछली सा


नजारा होगा


बावरा सा है ये


पींगों की बात भूल गया


काँटों में उलझा तो


लहुलुहान दिल लिए


चलना भूल गया

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