बुधवार, 4 मार्च 2009

मुट्ठी भर खून


मुझे देना कोई ऐसा पथ


काँटे बिछे हों जिन राहों पर


मैंने कोई कवच नहीं पहना


रूह मेरी है बिना लिबासों के



मुझको मालूम है बिन हवाओं के


कोई सफर नहीं होता


घर में बैठे ही यूँ भी


गुजर नहीं होता



मुट्ठी भर खून रगों में


थपकियों ने उँडेला होता है


काँटे क्योंकर सोख लेते हैं


नमी सारी , लहू लहू होता है

9 टिप्‍पणियां:

  1. हर बार की तरह इस बार भी प्रभावित हूं। बधाई।

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  2. शारदा जी नकास्कर,
    एक बार फिर से बेहद उम्दा लेखन ,बहोत ही गहरे भाव,, एक शंका है कृपया निदान करें हलाकि मैं आपभी लेखन सिखने की प्रक्रिया में हूँ पूछना वाजिब समझता हूँ ... के क्या मुठ्ठी भर खून होता है ? पूछने का मतलब ये है के ये तो तरल पधार्थ है ...
    कृपया अन्यथा ना ले मेरी शंका का समाधान करें..

    आपका
    अर्श

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  3. Arsh ji
    खून का कोई नाप-तोल तो नहीं लिखा जा सकता कि कितना बढा , ये कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जैसे जिन्दगी बढ़ गयी , सुख की साँस आ गयी | जब कोई हौसला अफजाई करता है तो क्या ऐसा नहीं लगता | और चुभने वाली बातें जैसे सारा खून निकाल लिया हो , नमी यानि प्यार बचा ही न हो | बस यूं समझ लो कि कभी कभी शब्दों का प्रयोग अपने आप हो जाता है जैसे आजकल हिंद युग्म के फरवरी माह के यूनिकवि की कविता में महसूसना शब्द आया है , पर हिंदी में तो महसूस करना शब्द ही सही है | तो बस ये कवि की मर्जी है वो कैसे क्या कहना चाहता है |
    बहुत अच्छा लगा आपने टिप्पणी की |

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  4. मुझे न देना कोई ऐसा पथ
    काँटे बिछे हों जिन राहों पर
    मैंने कोई कवच नहीं पहना
    रूह मेरी है बिना लिबासों के
    शारदा जी बहुत बढ़िया रचना . आभार

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