सोमवार, 16 मार्च 2009

मरहमों में जिदगी सा कोई फानी नहीं

एक संवेदन शील मन दूसरे का दर्द भी जी लेता है , उसे शब्दों में भी ढाल लेता है | बस ऐसे ही किसी दर्द की नजर ये पंक्तियाँ


क्यों मनाएँ हम


ग़मों की बरसियाँ


बुक्का फाड़ के


रोते हैं अहसास


क्या कोई आसमाँ


मेरा न था


मेरी राहों में क्या


कोई सबेरा न था


क़दमों के निशाँ


कहते हैं रास्ता


दिल जला कर ही सही


अँधेरा कहीं छोडा न था


राहे-वफ़ा की राह पर


जिन्दगी को साथ लेकर


चलते रहे


जिन्दगी का घूँट पीकर


दिये की तरह जलते रहे


जिन्दगी के घूँट ही तो


जिन्दगी हैं


क्यों भुलाएँ जश्न को


क्यों मनाएँ बरसियाँ


इन मरे हिस्सों को जिला लें


सब्र और जश्न को मिला लें


थोड़ी राहें सजा लें


जिन्दगी को एतराज न हो


ऐसा कोई मंजर सजा लें




साजिशों में जिन्दगी का कोई सानी नहीं


मरहमों में जिन्दगी सा कोई फानी नहीं


शिकार होते दीन-ईमां , जंग लड़ती आशना


अपनी धड़कन भी पराई , रूह का वो कत्ले-आम


है अदब भी फासले का दूसरा नाम


बोलती हैं दीवारें भी इस तरह


दो घूँट अपनी आशना पी कर


आसमां के गले लग आयें
्या हर्ज़ है गर , थोड़ी जिंदगानी जी आयें


5 टिप्‍पणियां:

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