सोमवार, 2 मार्च 2009

सफर में कोई आड़ तो चाहिये


दिल की तपन माथे तक पहुँचती है


काँटा जो चुभे , दिल में ही गड़ा रहता है


बड़ी धूप है रेगिस्तानों में


सफर में कोई आड़ तो चाहिये


काँटों की बाड़ में , कोई खुमार तो चाहिये


काँटा तो दूर हुआ , चुभन अभी बाकी है


जख्म हैं सिले हुए , अहसास अभी बाकी है


ख़ुद को छलने के लिये , उधार ही सही


दिल की दौलत बेशुमार चाहिये


11 टिप्‍पणियां:

  1. Waah !!

    Peeda ko badi hi sundar abhivyakti di hai aapne..
    Sundar rachna....

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  2. पहले की ही तरह इस बार भी सुन्दर रचना । बधाई

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  3. सफ़र है तो धूप भी होगी, जो चल सको तो चलो, सभी हैं भीड़ में शामिल, जो निकल सको तो चलो..

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  4. साथ ही सबका प्यार और टिप्पणियां भी चाहिए।

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  5. ख़ुद को छलने के लिये , उधार ही सही



    दिल की दौलत बेशुमार चाहिये
    waah bahut sundar

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  6. आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद |अंशुमाली जी आपकी टिप्पणी पढ़ कर बरबस मन मुस्करा उठा , मन को खिलखिलाने में देर ही कितनी लगती है | अपनी रचना की चार पंक्तियाँ लिख रही हूँ
    मुट्ठी भर खून रगों में
    थपकियों ने उंडेला होता है
    कांटें क्यों कर सोख लेते हैं
    नमी सारी , लहू लहू होता है

    टिप्पणियाँ वाकई थपकियाँ हैं |

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  7. बहुत सुंदर !
    घुघूती बासूती

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  8. सफर में कोई आड़ तो चाहिये

    -क्या बात कही..बहुत खूब!!

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  9. ख़ुद को छलने के लिये , उधार ही सही
    दिल की दौलत बेशुमार चाहिये


    और तो अंशुमाली जी ने कह दिया है।

    सुन्दर रचना

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आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है