रविवार, 7 मार्च 2010

ये ज़िरह को तोलता

अभाव भी है बोलता
दिलों के भेद खोलता
तड़प कसक के साथ ही
आँखों में है डोलता

धरती के सीने में
ये ज़िरह को तोलता
समेटना था नभ को
ये गिरह को खोलता
पा लेते जो मुक्कमिल जहाँ
तो कौन क़दमों में जान डालता

शोर भी इसी का है
है बाँध सारे तोड़ता
सात पर्दों में रखा हुआ
अस्तित्व को झकझोरता
कैसा है ये भाव जो
सिर पे चढ़ के बोलता


अभाव भी है बोलता
दिलों के भेद खोलता
तड़प कसक के साथ ही
आँखों में है डोलता


2 टिप्‍पणियां:

  1. शोर भी इसी का है
    है बाँध सारे तोड़ता
    सात पर्दों में रखा हुआ
    अस्तित्व को झकझोरता....

    बेहतरीन पंक्तियां....सुन्दर रचना

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  2. अभाव भी है बोलता
    दिलों के भेद खोलता
    तड़प कसक के साथ ही
    आँखों में है डोलता

    बहुत सुंदर

    जवाब देंहटाएं

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