मैं एक नन्हीं बच्ची हूँ
सारी उम्र ज़हन में ,
बचपन ही बोलता रहा
माँ सी कोई गोदी ,
पिता का सर पे हाथ ही खोजता रहा
मैं एक पत्नी हूँ
मन चकोर की तरह ,
पिया के इर्द-गिर्द ही डोलता रहा
सूरज चढ़ता उसी की देहरी पर ,
वही साँझ के पट खोलता रहा
मैं एक माँ हूँ
जिगर के टुकड़ों में मन ,
अपना ही अक्स टटोलता रहा
हर कोई ढूँढता है पहचान ,
रिश्तों को तोलता रहा
अपने ही वजूद का हिस्सा है जो ,
टुकड़ों में बोलता रहा
सारी उम्र ज़हन में ,
बचपन ही बोलता रहा
माँ सी कोई गोदी ,
पिता का सर पे हाथ ही खोजता रहा
मैं एक पत्नी हूँ
मन चकोर की तरह ,
पिया के इर्द-गिर्द ही डोलता रहा
सूरज चढ़ता उसी की देहरी पर ,
वही साँझ के पट खोलता रहा
मैं एक माँ हूँ
जिगर के टुकड़ों में मन ,
अपना ही अक्स टटोलता रहा
हर कोई ढूँढता है पहचान ,
रिश्तों को तोलता रहा
अपने ही वजूद का हिस्सा है जो ,
टुकड़ों में बोलता रहा
कविता काफी अर्थपूर्ण है!
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति। आभार
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