रविवार, 31 जनवरी 2010

थोड़ी चलने को जगह

लू को मैं समझ लेती हूँ ठँडी हवा
थोड़ी चलने को जगह हो जाये

शाम को मैं समझ लेती हूँ सुबह
इसी टुकड़े पर सुबह की खेती करके
थोड़ा आसमाँ मेरे नाम हो जाये


दीवारों से उलझूंगी तो चलूँगी कैसे
सिर पर खड़ा सूरज सम्भालूँगी कैसे
तपिश में थोडा आराम हो जाये

उड़ जाती हैं धज्जियाँ तब कहीं जाकर
ख़त्म होता है अहम , सच तो बोला है बहुत
थोड़ा झूठ से भी , काम हो जाये

4 टिप्‍पणियां:

  1. दीवारों से उलझूंगी तो चलूँगी कैसे
    सिर पर खड़ा सूरज सम्भालूँगी कैसे
    तपिश में थोडा आराम हो जाय
    शार्दा जी बहुत सुन्दर और गहरे भाव लिये है आपकी रचना। शुभकामनायें

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  2. उड़ जाती हैं धज्जियाँ तब कहीं जाकर
    ख़त्म होता है अहम , सच तो बोला है बहुत
    थोड़ा झूठ से भी , काम हो जाये..

    सच बोलने वाले को ठोकर ही नसीब होती हैं .......... अच्छा लिखा है ........

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  3. शाम को मैं समझ लेती हूँ सुबह
    इसी टुकड़े पर सुबह की खेती करके
    थोड़ा आसमाँ मेरे नाम हो जाये
    Bahut sundar bhav
    Shubhkamnayen.

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