मंगलवार, 29 नवंबर 2011

अपने दम पर

समझा था जिसे छाया मैंने
वो तो बादल का टुकड़ा भर था
झीनी चदरिया तार-तार हुई
और तपता सूरज सर पर था

भरमों के बिना जीवन कैसा
अरमाँ का अपना भी कोई घर था
उम्रों से निरास निहाल हुई
अपनी कश्ती में कोई पर था

मिलते ही जगह भरने लगता
इक वहम का ऐसा भी सर था
टूटे जितना हम जुड़े मिले
चलना जो अपने दम पर था

7 टिप्‍पणियां:

  1. मिलते ही जगह भरने लगता
    इक वहम का ऐसा भी सर था
    टूटे जितना हम जुड़े मिले
    चलना जो अपने दम पर था

    ...गहन चिंतन से परिपूर्ण बहुत सुंदर प्रस्तुति..

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  2. समझा था जिसे छाया मैंने
    वो तो बादल का टुकड़ा भर था
    झीनी चदरिया तार-तार हुई
    और तपता सूरज सर पर था
    Behad sundar alfaaz!

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  3. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-715:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  4. सुन्दर सुगढ़ प्रभावी रचना..
    सादर...

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  5. समझा था जिसे छाया मैंने
    वो तो बादल का टुकड़ा भर था
    झीनी चदरिया तार-तार हुई
    और तपता सूरज सर पर था ...
    को बार ऐसे भ्रम जीने को प्रेरित करते हैं ... वैसे सच तो सभी को पता होता है ...

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