ज़िन्दगी जुए सी है
हाथ में आ जाएँ जो थोड़े इक्के
सलाम ठोकते हैं सारे पत्ते
उम्मीद के सूखे पत्ते
मय ज़र्द चेहरों के
बड़े बेमन से किये हैं अलग
ज़मीं गीली है अभी
मगर वो आबो-हवा नहीं है
रोज़ घटता बढ़ता है
उम्मीद का साया भी
चन्दा की ही तरह
कौन सी चीज है
जो अमर होती है
एक हमको ही न आया हुनर
ज़माने के साथ चलने का
या तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया जा रही है
किसी और ही राह ...
कहने जो गये हम
तो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
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एक हमको ही ना आया हुनर जमाने के साथ चलने का या तो सारी दुनिया ही हिली हुई है की जगह यदि मैं कहूँ "कि या तो सारी दुनिया ही ढीली है या हमे ही चलना ना आया दुनिया के साथ चलते चलते...."बुरा मत मानिएगा मैंने तो बस यूं हीं कुछ तुकबंदी मिलाने कि कोशिश कि, आपको ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं था। बहुत खूब लिखा है आपने !!!
जवाब देंहटाएंज़मीं गीली है अभी
जवाब देंहटाएंमगर वो आबो-हवा नहीं है
bahut khoob likha hai aapne.badhai.
कहने जो गये हम
जवाब देंहटाएंतो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा
bahut achhaa
sunnaa koi nahee chaahtaa
sab sunaanaa chaahte
नहीं पल्लवी जी , बुरा बिलकुल नहीं लगा , आपको हक़ है , मुझे खुद जो बात अखर रही थी वो ये के मैं दुनिया को हिली हुई क्यों लिख रही हूँ , हार्श शब्दों का इस्तेमाल जंचता नहीं है , शुक्रिया आपके एडिट करने की तरफ ध्यान दिलाने से मुझे लगता है ...मुझे लिखना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंया तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया ही जा रही है किसी और ही राह ...
कविता में तुकबंदी जरुरी नहीं है ...भाव अभिव्यक्त होना चाहिए ...अब बताइये , ऊपर लिखी पंक्तियों को आपकी राय आने तक एडिट नहीं करुँगी ...
वाह!! बहुत उम्दा कहा!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लिखा आपने...
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