मंगलवार, 23 जून 2009

दायरा थोड़ा बड़ा कर लो

सूरज ....नाम था उसका ....अधेड़ उम्र की शुरुवाद और बीच रास्ते में साथी को अकेले छोड़ दुनिया से पलायन .....रिश्ते में दीदी ....उषा .....मिल कर लगा ...वो बता नहीं पा रही हैं मगर वेदना की छटपटाहट स्पष्ट छलक रही है ....मैं जो उन्हें कहना चाह रही थी , कह नहीं पाई ..वो कविता के रूप में प्रस्तुत है .....


वो गया तो ऐसे कि
जैसे सूरज जाता है
तुझको मालूम नहीं
कि कैसे बहानों से जिया जाता है , वो तेरी दुनिया का बहाना भर था
बेशक वो सिर पे सजे ताज की मानिन्द ,
बादशाहत का असर था
दुःख होते हैं उतने ही गहरे
जितना गहरा हम उन्हें अपनाते हैं
या कि जिन्दगी के जितने बड़े बहाने को हम खोते हैं
ओढ़ के चादर दुःख की बैठ जाते हैं
सूरज जाता है तो आकाश में चाँद -तारे छोड़ जाता है
उन्हीं चाँद -तारों को अपना कर लो
अपनी दुनिया का दायरा थोड़ा बड़ा कर लो
उषा नाम है तेरा
अपने उजाले से भी मिल आओ तो सही
वो थीं किस्मत की लकीरें
अपनी बोई लकीरों से भी मिलवाओ तो सही

6 टिप्‍पणियां:

  1. भाव से पूर्ण सुंदर अभिव्यक्ति,
    धन्यवाद

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  2. रापके आलेख की तरह ही एक सकारात्मक अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर आभार्

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  3. वो गया तो ऐसे कि
    जैसे सूरज जाता है
    तुझको को मालूम नहीं
    कि कैसे बहानों से जिया जाता है , वो तेरी दुनिया का बहाना भर था
    बेशक वो सिर पे सजे ताज की मानिन्द ,
    बादशाहत का असर था
    दुःख होते हैं उतने ही गहरे
    जितना गहरा हम उन्हें अपनाते हैं
    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

    जवाब देंहटाएं

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