गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

पूरब की ओर से

सूरज चढ़ता है पूरब की ओर से 
कभी चढ़ तू मेरी गली के छोर से 
मिट जाएँ भरम मेरे सारे 
बाँध लूँ मैं तुझे किसी डोर से 

गेहूँ की बालियाँ हैं सुनहरी 
खेत नाचते हैं जैसे किसी मोर से 
टूटा मेरा ही नाता है देखो 
दूर बैठी हूँ मैं किसी भोर से 

मन के घोड़े दौड़ा लें चाहे जितना 
बाँधे वहीँ खड़ा है कोई जोर से 
हाँफ गई है मेरी सारी कामना 
सारे शिकवे उसी चित-चोर से 

पवन ,बरखा ,बदरी ,मौसम 
गया कोई नहीं है छोड़ के 
अपने भाग टटोलूँ बैठे-ठाले 
बिजली चमके तो सूरज की ओर से 

9 टिप्‍पणियां:

  1. .भावात्मक अभिव्यक्ति ह्रदय को छू गयी आभार नवसंवत्सर की बहुत बहुत शुभकामनायें नरेन्द्र से नारीन्द्र तक .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MANजाने संविधान में कैसे है संपत्ति का अधिकार-1

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  2. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (13 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  3. सुंदर निश्चल और सरल रचना । अच्छी लगी पढते हुए

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  4. 'सूरज चढ़ता है पूरब की ओर से
    कभी चढ़ तू मेरी गली के छोर से
    मिट जाएं भरम मेरे सारे
    बांध लूं मैं तुझे किसी डोर से।'
    अद्बुत कल्पना है सूरज को डोर से बांधना। ऐसा काम वहीं कर सकता है जिसकी कल्पना में ताकत हो। आपके कविता की चंद पक्तियां मानो पवनपुत्र हनुमान के समान हवा पर संवार होकर सूरज के अस्तित्व को आवाहन कर रही है।

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  5. शालिनी जी ,वन्दना जी , अजय जी और विजय जी रचना पसंद करने का बहुत बहुत शुक्रिया ...

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  6. बेहतरीन रचना
    पधारें "आँसुओं के मोती"

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आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है