धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए
कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों से चहकते हुए
तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
सच कहती हैं आप..आज की पीढ़ी प्रकृति से दूर हो गयी है..बारिश में सोंधी खुशबु का भान भी नहीं है उन्हें..
जवाब देंहटाएंबहुत स्टीक!
जवाब देंहटाएंसत्य वचन कहे आप ने, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंशारदा जी, ये गांव की मिट्टी की महक सचमुच शहर में नसीब नहीं होती...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने.
वाह शारदा जी.....इस रचना के माध्यम से आपने बहुत अच्छी और गहरी बात कही है......प्रकति में ही सबसे पहले उस विराट के दर्शन होते हैं|
जवाब देंहटाएंसच कहा है ... आज के बच्चे प्राकृति से बहुत दूर हो गये हैं ... ये सब बातें वो आजकल बस नेट में देखते हैं ...
जवाब देंहटाएंsacchhayi bayaan karti hui aapki kavitaa ne sochne ko vivash kar diyaa
जवाब देंहटाएंवाह! क्या बात कही है, आज के सच को खूबसूरती से बयान किया है!
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