गुरुवार, 10 जून 2010

नजर की गुफ्तगू

यूँ ही नहीं ढूँढती हैं आँखें , किसी को बेसबब
दिल से दिल की राह जाती है , यूँ झलक

जाते हुए जो नजर उठा कर भी न देखा उसने
बिन कहे समझो के हम उसके दिल से गए उतर


मायूसी के मन्जर हैं या दिल का कमल खिला
बात इतनी सी पे रिश्तों के मायने जाते हैं बदल


नजर की गुफ्तगू नहीं कहने की बात है
नर्मियाँ , तल्खियाँ दूर तक चलती हैं बेहिचक


यूँ ही नहीं ढूँढती हैं आँखें , किसी को बेसबब

दिल से दिल की राह जाती है , यूँ झलक

8 टिप्‍पणियां:

  1. शारदा जी,बहुत सुन्दर गजल है।बधाई स्वीकारें।

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  2. बढ़िया रचना प्रस्तुति..बधाई...आभार

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  3. आईये सुनें ... अमृत वाणी ।

    आचार्य जी

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  4. वाह....वाह...वाह...बहुत ही सुन्दर मनमोहक रचना...
    बड़ा अच्छा लगा पढ़कर...

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  5. कुछ रूमानियत, कुछ मायूसी और कुछ तल्ख़ी...ज़हनी रंग लिए हुए हैं ये आशार ...
    पसंद आये हैं...
    शुक्रिया..

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