आँखों में कटता है पहर
ऐसी होती है दोपहर
जीवन की दुपहरी दम माँगे
नाजुक मोड़ों पर तन्हाई
चुभता सूरज भी ख़म माँगे
खोल ज़रा तू हाले-जिगर
ऐसी होती है दोपहर
प्राण साथी का ही काँधा माँगे
तप कर पिघली है तरुणाई
घिरे बदरा से बरखा माँगे
तपता आसमाँ भी गया है ठहर
ऐसी होती है दोपहर
ऐसी होती है दोपहर
जीवन की दुपहरी दम माँगे
नाजुक मोड़ों पर तन्हाई
चुभता सूरज भी ख़म माँगे
खोल ज़रा तू हाले-जिगर
ऐसी होती है दोपहर
प्राण साथी का ही काँधा माँगे
तप कर पिघली है तरुणाई
घिरे बदरा से बरखा माँगे
तपता आसमाँ भी गया है ठहर
ऐसी होती है दोपहर
सचमुच दोपहर ऐसी ही होती है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर....
NICE POEM
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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