आदमी कुछ भी नहीं
हसरतों के सिवा
धुएँ का पहाड़
उठता है
क्या जाने किधर से आता है
चिँगारी दिखाने की देर है
लपटों से घिरा नजर आता है
कभी बेड़ियाँ , कभी पायल
और ख़्वाबों की सैर-गाह
कभी गुबार और
लपटों से झुलस जाता है
आदमी कुछ भी नहीं
चिँगारी , गुबार और लपटें
धुएँ का खेल है
आदमी को बीमार कर जाता है
हसरतों के सिवा
धुएँ का पहाड़
उठता है
क्या जाने किधर से आता है
चिँगारी दिखाने की देर है
लपटों से घिरा नजर आता है
कभी बेड़ियाँ , कभी पायल
और ख़्वाबों की सैर-गाह
कभी गुबार और
लपटों से झुलस जाता है
आदमी कुछ भी नहीं
चिँगारी , गुबार और लपटें
धुएँ का खेल है
आदमी को बीमार कर जाता है
बहुत ख़ूब...
जवाब देंहटाएंमन को छू लेने वाली रचना...
बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना धन्यवाद
जवाब देंहटाएंगंभीर सवाल...और बेहद ज़रूरी भी.
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी रचना.
bahut khoob mam...
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