मंगलवार, 27 जनवरी 2015

इसी खिड़की से


इसी खिड़की से बाहर देख-देख कर ,
कितना मैंने अन्दर झाँका 
हिलती धरती , पाँव बहकते ,
एक फलक मैंने अन्दर टाँका 

ऊँचे पहाड़ों से घिरी झील है 
बहती नावें , महज़ दृश्य है 
नजर ही भरती रँग नज़ारों में 
लेखनी ने ये जग से बाँटा 

ले जायें किस मोड़ पे ये 
दृश्यों को कब टिकते पाया 
रिश्तों तक को रँग बदलते पाया 
झोली में जो शेष रहेगा 
ज़िन्दगी ने वो खुद से छाँटा 

मन के आँगन में एक है खिड़की 
धूप कभी सहला जाती है 
छाया का मन बहला जाती है 
राहों में गर फूल खिले हों 
कौन भला चुनता है काँटा 



8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1873 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. नैनीताल के बहाने आपने बेहद उम्दा तरीके से अपनी भावनाओं को जाहिर किया है. दो बार मैं भी गया हूँ. कुछ अजीब सा सम्मोहित रंग अब भी चिपका हुआ है.....

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  4. Wah! Bade dino baad aayi hun aapke blogpe....aur uska sila mil gaya....such....rahon m phool bikhare hon to kaun kante chunega?

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  5. एक बेहतरीन रचना। कमाल का लेखन।

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