शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

कहते थोड़ा आराम है न

जिस्म की केंचुल उतर भी जाये 
बसा है रावण तो तेरी नस नस में 
सूँघ सूँघ कर इश्क है करता  
अपना ही रूप तू जाने न 

आराम है उसकी गोदी में 
खुल जातीं आँखें थपकी से 
परम-पिता के हाथों में 
ये कैसा विश्राम है न 

निकल पड़े हैं सफ़र धूप के
छाया है अपने अन्दर ही 
टुकड़ों में हैं धूप पकड़ते   
कहते थोड़ा आराम है न 

वो सागर और मैं बूँद सा 
बरस है जाता वो मेघ सा 
जल थल होता मन अँगना 
मेरी उसकी हस्ती एक है न  

3 टिप्‍पणियां:

  1. वो सागर और मैं बूँद सा
    बरस है जाता वो मेघ सा

    बहुत कुछ कहती और सवाल छोड़ती रचना...
    मुबारकबाद.

    जवाब देंहटाएं
  2. परम पिता का हाथ हो जो सब कुछ आसान हो जाता है ... गहरी बात ...

    जवाब देंहटाएं

आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है