मौत का होल सेल प्रोग्राम चल रहा था , जो भी उस वक्त पास से गुजरा , उसकी चपेट में आ गया । ये हाड़-मांस के पुतले मशीनें नहीं थे , दिल जिगर भी रखते थे , इनके उधडे मांस से इनको भी दर्द होता था ...अश्क आहें रुदन करते हैं ...बिखरे टूटे हाथ पाँव सदियों तक मुआवजा मांगेंगे ...जख्मी ख़्वाब लाचार से ...फिर जुर्म की दुनिया न मांगें ...राहत का मरहम ये ही है कि सहारा बनो , मुस्कान बनो , खुदा की इक झलक सी पहचान बनो ...
चेहरा कैसा है दहशत का
मोहरा हो जैसे वहशत का
चुभते चीखते से मंजर
पकडे हैं हाथों में खंजर
सबके घर शीशे के ही हैं
फिर पत्थर क्यूं कर उठाए हैं
चेहरे थे जो सलोने से
तोड़े हैं देखो खिलौने से
काम खुदा का कर डाला
भेजा है थोक में इक झाला
कोई टूटा जोड़ दिखाए न
कोई उधड़ा सिल के बताये न
खुद को ही जो छल बैठे हैं
खुदी से आइना छुपाये हैं
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
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सटीक लिखा है ..
जवाब देंहटाएंजाने कब ख़त्म होगा वहशत का ये खेल.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही लिखा है आपने। आदमी खुदा बन बैठा है मगर।
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