रविवार, 28 सितंबर 2008

सफर के सजदे में

क्यों न हम अपने संवेदन शील मन को सृजन की डोर थमा दें । दुःख रात की तरह काला और अंतहीन , सृजन क़दमों को दिशा देता ,आशा का टिमटिमाता दिया। सृजन ही जीवन है ।

कविता की आख़िरी पंक्ति को सकारात्मक ही होना है, ये मेरा ख़ुद से वायदा है , जैसे डूब डूब कर ऊपर आना ही है ।

जीवन यात्रा छोटी हो या लम्बी हो उसकी मर्जी ,इस सफर का सजदा तो अपने वश में है । अभिवादन करें तो तन मन के साथ प्रकृति भी गाती है , ठुकरातें हैं तो ऋणात्मक गूँज दूर तलक जाती है ; अन्दर कहीं कुछ मर जाता है , तूफ़ान से घिर आतें हैं । जब यात्रा ही सब कुछ है ,और एक हद तक अपने बस में भी है ,तो क्यों न इसका सजदा करें ।

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