अपने टूटे टुकड़े बटोर के रखती हूँ
मैं हर सुबह कुछ जोड़ के रखती हूँ
मेरी लेखनी को बीमारी है सच बोलने की
मैं अपनी सोच संभाल के रखती हूँ
लम्बी दूरी है तय करनी
सफ़र में कुछ छाँव जोड़ के रखती हूँ
छूते ही बिखर न जाऊँ कहीं
ख़ुद को ही झिंझोड़ के रखती हूँ
सुबह ख्यालों में हैं
मैं तह-दर-तह ,ईंट-ईंट चिन के रखती हूँ
कर्ज रिश्तों का भी है
ताने-बाने का सूत अटेर के रखती हूँ
कुछ तो सालिम रहे मुझ में मेरा
दिल में इक अलख जगा के रखती हूँ
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