मैं और मेरी कविताएँ
अक्सर बतियाते रहते हैं
वो कहती हैं ,हम जन्मीं थीं
जब तुम हार गईं थीं दुनिया से
घबरा कर अपने अन्तस में लौटीं थीं
वो भाव तुम्हारे पन्नों पर
क़दमों में तुम्हारा दम बन कर
हम हस्ताक्षर सी मौजूद रहेंगी
जब-जब तुम छूट गईं अकेले
हमने पकड़ी उँगली ,इक आस जगाई
हम रहीं तुम्हारे साथ चन्दा ,सूरज ,तारे महकाने
तुम अपनी कल्पना शक्ति के रँग भरतीं
तुम्हारी हर ख़ुशी में साथ तुम्हारे
सिर चढ़ कर हम ही बोलें
नन्हें बच्चों सी दुलारी हम
परछाईं सी तुम्हें प्यारी हम
हर रँग उकेरा है हमने
हम करुण रस ,हम वीर रस
हम दावानल ,हम श्रृंगार रस
हम ही भक्ति ,हम ही शक्ति
सोते-जगते तेरे साथ खड़े
तन्हा न कभी छोड़ा हमने
मौन तुम्हारी ज़ुबाँ बन कर
अक्षर-अक्षर हम उत्तरी हैं
मैं बोली तुम मेरी प्राण-शक्ति
लिखती न मैं तो क्या होता
रफ़्तार ज़माने की देखी
रुक गई थी मैं ठिठकी-ठिठकी
विरह में कोई अलख है
ठोकरों में है कोई सीख
ख़ुशी में भी झन्कार है
जो तू देख सके तो ,जुदा एक सँसार है
कविताएँ हमेशा हमारी साथी होती हैं ।मन की भावनाओं को उकेरती रहती हैं । बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 09 सितंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबहुत ही प्यारी रचना!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनीषा जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावात्मक सृजन।
जवाब देंहटाएंसार्थक अभिनव।
तहे-दिल से शुक्रिया
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