यादों की गुल्लक फोड़ूँ तो ,
बचपन ज़िन्दा हो उठता है
माँ का आँचल लहराता है ,
इक छाँव मेरे सँग चलती है
साया जो पिता का सर पर था ,
जैसे अम्बर ताने हाथ खड़ा
मुश्किल से मुश्किल राहों पर ,
वो बेफिक्री ,महफ़ूज़ियत आज भी मेरे सँग चले
भाई-बहनों में छोटी थी ,
खेल-खिलौने ,झूले सब मेरे थे
सावन का झूला वो अँगना में ,
लाड-दुलार सँग कोई लौटाए तो
गुड्डे-गुड़ियों की दुनिया में ,
कुछ सँगी थे ,कुछ साथी थे
अपनी-अपनी दुनिया में खो गये सब ,
वो नन्ही दुनिया आज भी मुझको दिखती है
कुछ दोस्त गले से लगाये थे ,
जैसे जां में अपनी समाये थे
कोई दिल के बदले दिल दे दे ,
मैं आज भी ढूँढती फिरती हूँ
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२३-0६-२०२१) को 'क़तार'(चर्चा अंक- ४१०४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसाभार
हटाएंबहुत अच्छी कविता रची आपने शारदा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबचपन के दिन भी क्या दिन थे ..सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबचपन की यादों से सजी सुंदर कविता। समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर भी भ्रमण करें।सादर धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ,
जवाब देंहटाएंबचपन की याद दिला दी आपने
जवाब देंहटाएंगुड्डे-गुड़ियों की दुनिया में ,
जवाब देंहटाएंकुछ सँगी थे ,कुछ साथी थे
अपनी-अपनी दुनिया में खो गये सब ,
वो नन्ही दुनिया आज भी मुझको दिखती है
दिखती तो शायद सबको होगी पर अधिकांश अपनी आँखे मुद लेते है,बहुत ही सुंदर बचपन की यादों को तरोताजा करती रचना सादर नमन आपको
दिल ख़ुश हुआ , शुक्रिया
हटाएंबहुत ही सुन्दर
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