मंगलवार, 18 अगस्त 2020

पतझड़




किसी के लिये पतझड़ है महज़ एक मौसम 
गुजर जायेगा , पत्ते झड़ेंगे , फिर नये कलेवर के साथ सब कुछ नया-नया सा होगा 
किसी के लिये ठहर जाता है सीने में 
पीले पड़ते हुए पत्ते मटमैले रँग के शेड्स हो जाते हैं 
ये बेरँग धूल-धूसरित से रँग 
ज़िन्दगी के सबक सिखाते हुए ढँग 
जैसे सो जाती है फिजाँ आँख मूँद कर 
सूखे पत्तों के बीच चहल-कदमी का शोर 
किसने देखा है , कौन जानेगा 

गुजरा तो हर कोई है ,थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा 
पतझड़ है उदासी की छटपटाहट , हलचल की कुलबुलाहट ,सृजन की अकुलाहट भी 
और फिर धरती की सारी नमी बटोर कर , नन्हीं कोंपलें खिल उठती हैं ;
जैसे कान लगे हों बसन्त की आहटों पर 

पतझड़ है मौसमों में एक मौसम 
सब कुछ खो कर भी कुछ खड़ा है ,
जैसे जीने की ज़िद पे अड़ा है 
दिल खिला हो तो गुनगुनाता है पतझड़ भी 
गुनगुनी धूप हो ,सूरजमुखी से चेहरे हों 
मटमैले रँग भी जादुई से लगते हैं 
तिलसमी दुनिया के ख्वाब ऊँघते से लगते हैं 
जैसे रजनी सो रही हो कुदरत की बाँह पर सर रख कर 

हाँ मैं पतझड़ हूँ ,ज़िन्दगी के कैनवस पर भरा हुआ इक जरुरी सा रँग 
मेरे बिना अहमियत नहीं लाल-गुलाबी ,हरे-पीले रँगों की 
बस तुम जरा रौशनी डाल लो और हर शाख पे फूल खिला लो 

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