बुधवार, 12 सितंबर 2018

जब न होंगीं राहें हक़ में

कैसे चलोगे जब न होंगीं राहें हक़ में 
जब भी कोई गुजर रहा होता है जिस्मानी तकलीफों से 
वो सिर्फ जिस्मानी दर्दों से ही नहीं गुजरता है ,
वो गुजर रहा होता है,रूह तक उतरती हुई दुनिया की बेरुखी , नजर-अन्दाज़ी , हिकारत और नसीहतों के दर्द से भी 
कुछ बड़े करीबी भी खड़े हो जाते हैं दुनिया की भीड़ में ही 
कितना ही उतरने न दो दँशों को सीने में,
मगर क्या कोई मसीहा हुआ है ?

खरीदी हुई सेवाएँ भी कितनी सगी हुई हैं 
मतलब निकलते ही पल्ला झाड़ कर हर कोई अलग खड़ा हुआ है 
आड़ा वक़्त ही तपाता है बेशक ,
नम सीने की फूटती रुलाइयों में भला क्या कोई सख्त हुआ है 
सुनते हैं कि मिटती नहीं है खुशबू फूलों की ,
मगर मसले जाने तलक भला क्या जीना हुआ है 
 हर आँख खाली है , हर बात है बेमायने 
नाख़ुदाओं के शहर में , अपने-अपने हिस्से की धूप-छाया में हर कोई भरमाया हुआ है

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