गुरुवार, 11 अगस्त 2011

कैसे करूँ पर्बत को राई

सारी दुनिया ऐसी पाई
पल में तोला पल में माशा
कैसे करूँ पर्बत को राई
अपनी फितरत देख तमाशा

दिल अपना और प्रीत पराई
दर्द की अपनी ये ही भाषा
छोड़ चला कोई राजाई
किसी का खेल किसी की आशा

मन्जर गर नहीं सुखदाई
बातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
दुखती रगें भी तो दवाई
साथी कभी , है प्रेरणा निराशा

6 टिप्‍पणियां:

  1. Nice post .

    दूर से ही लगता है कि ये अंग्रेज़ होंगे तो हमसे ज़्यादा अच्छे होंगे लेकिन पास जाओं तो अंदर से वही लालच, नफ़रत और इंतक़ाम उनके अंदर भी मिलेगा जो हिंदुस्तानियों में है।
    सारे झगड़े-फ़साद और ख़ून ख़राबे इसी बात की वजह से हैं कि आदमी अपने लिए हर तरह से सुरक्षा चाहता है और दूसरों को वही चीज़ देने के लिए तैयार नहीं है।
    आप 'ब्लॉगर्स मीट वीकली 3‘ में तशरीफ़ लाए होते तो उस मीटिंग के पहले और बिल्कुल आखि़री लेख देखकर इन समस्याओं से मुक्ति का सच्चा समाधान भी जान लेते।

    आप अब भी देख सकते हैं
    ‘ब्लॉगर्स मीट वीकली 3‘

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  2. आस - निरास में ही जीवन बीते !
    अच्छी लगी कविता!

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  3. मन्जर गर नहीं सुखदाई
    बातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
    दुखती रगें भी तो दवाई
    साथी कभी , है प्रेरणा निराशा
    Kya gazab baat kah deteen hain aap!

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  4. बहुत अच्छी रचना...
    स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.

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