मंगलवार, 9 नवंबर 2010

पहचान नदारद है

पी के जिस घूँट को उड़ते हैं
वो घूँट नदारद है
जो भरती है क़दमों में दम
वो प्यास नदारद है
सींचे जाते हैं खुद को ही ,
देते हैं अर्घ्य जब , दूर खड़े उस सूरज को
पहचानी हुई है वो गर्मी
अरमाँ की हर बात नदारद है
छोड़ो छोड़ो क्या कहना है ,
हम चल लेते अपने दम पर , झाँका अन्दर
नाम लिखा उसी का है
अपनी भी पहचान नदारद है

6 टिप्‍पणियां:

  1. हम चल लेते अपने दम पर ,
    झाँका अन्दर
    नाम लिखा उसी का है
    अपनी भी पहचान नदारद है

    वाह...वाह
    बहुत अच्छी रचना है शारदा जी, बधाई.

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  2. एक दार्शनिक रचना। जब आत्मा में झांका तो अपनी पहिचान न रही ,मै मै न रहा

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. शारदा जी,

    वाह....बहुत सुन्दर .....वाह ....और शब्द नहीं हैं मेरे पास....सफ़र के सजदे को आज ही फॉलो कर रहा हूँ....शुभकामनाये|

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  5. नाम लिखा उसी का है
    अपनी भी पहचान नदारद है
    वाह क्या बात है। सुन्दर। बधाई।

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