मंगलवार, 23 जून 2015

सिक्के बचपन की गुल्लक के

वक़्त के साथ जब आदमी आगे बढ़ता है तो कोई दिन तो आता है जब पुराना सब कुछ छोड़ कर उसे सिर्फ आगे देखना होता है ; यहाँ तक कि वो घर भी जिसमें बचपन बीता ,यादों के हवाले हो जाता है ...

मेरे बचपन का घर छूटे जाता है 
माँ-पापा की छत्र-छाया के अहसास का घर छूटे जाता है 
भाई-बहनों के साथ का घर छूटे जाता है 
यादों के अनगिनत लम्हे भी उतर आते हैं ज़ेहन में 
कसैली यादें तो लिपट जातीं हैं मेरे वज़ूद को नीम करेले की तरह 
दो बूँद आँसू ढुलक उठते हैं मेरे गालों पर 
और मीठे लम्हे तो मुस्करा उठते हैं गाहे-बगाहे 
लौट के आना बचपन का नामुमकिन है 
और यादों से भुला पाना भी मुश्किल है 
बचपन का खाया दूध-दही , मेरी रगों का खून सही 
वो बेफिक्री-मस्ती का आलम , आज भी मेरी चाह वही 
खन-खन बजने लगते हैं सिक्के बचपन की गुल्लक के 
माँ का लाड़-दुलार , पापा की हिफाज़त , भाई-बहनों के साथ का अहसास 
सखी-सहेलियों की आवा-जाही ,दादी चाचा-चाची के साथ उत्सव का सा माहौल 
इन सबके बिना अधूरा सा मेरा वज़ूद 
इसी घर में शैशव ने थी उँगली पकड़ी यौवन की 
इसी घर की दहलीज़ के बाहर दुनिया बहुत अलग थी 
वो बचपन की कौतुहल वाली आँख से दुनिया का परिचय 
मैं आज जो कुछ भी हूँ , उसी बचपन की बदौलत 
ये उजाले चलेंगे ताउम्र मेरे साथ-साथ 
मेरी भी उम्र जियेगा ये घर मेरे साथ-साथ 

शुक्रवार, 5 जून 2015

तुम हो तो हम हैं

विश्व पर्यावरण दिवस पर पौधों के लिये

मेरे पौधों ,खिलो तुम जान से प्यारों की तरह 
फूलो-फलो दुनिया में , सितारों की तरह 

पीने दो मुझे मीठी सी कोई चाह 
थिरकने दो किसी धुन पे ,धड़कनों की तरह 

आयेंगीं आँधियाँ भी , तूफ़ान उठेंगे 
गले लगो मेरे ,सदियों से बिछड़ों की तरह 

दर्द हर हाल में रँग छोड़ता है 
बदलो इसे माज़ी के हवालों की तरह 

मैं तुम्हारी सब कुछ तो नहीं बन सकती 
समझो मुझे दोस्त-माली सा , सायादारों की तरह 

ये कोई चुग्गा तो नहीं है डाला मैनें 
तुम भी जी लो दुनिया में ,ऐतबारों की तरह  

हमने जिसे माँगा है , फिज़ाएँ हैं वो 
तुम बिन कहाँ महकती हैं ,वो खुशबुओं की तरह 

धरती ,पर्वत ,बरखा-पानी , जानें तुम्हारी सारी मेहरबानी 
तुम हो तो हम हैं , तुम्हीं हो हमारी ज़िन्दगानी की तरह 




सोमवार, 25 मई 2015

कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं


तेरी छोटी बहना के कमरे की दीवार पर 
तेरी बनाई हुईं तितलियाँ 
पँखे की हवा में पँख हिलाने लगतीं हैं 
जैसे उड़ रहीं हों किसी गन्तव्य की ओर 

बदल लेते हैं हम घर अक्सर 
जैसे चुरा रहे हों नजरें खुद से 
मछली ,तितली और फूलों को देखा है अक्सर मन के कैनवस पर 
आसाँ है इन्हें बना पाना , तैरें उड़ें और फूल खिलें 
कुछ यादें रँग भर लेतीं हैं , और कोई कुशल चितेरा बन जाता है 
न जाने कितनी ही चीजें तेरे अहसास में गुम हैं 

तू उठ कर चली गई है 
मगर हम संजोये हुये हैं सब कुछ ऐसे 
जैसे हर सलवट को सजाये हैं 
तेरी नर्म उँगलियों के अहसास को गले से लगाये हैं 
जब जी चाहे बुला लेते हैं तुझे यादों में 
मेरी आस की तितलियाँ भी हौले से पँख हिलाने लगतीं हैं 
और फूल खिलने लगते हैं 

मंगलवार, 19 मई 2015

मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान

४२ साल की बेहोशी के बाद हमेशा के लिये सो गईं अरुणा शानबाग , मुठ्ठी भर हड्डियों में तब्दील हुईं वो ख़ूबसूरत चेहरे की मालकिन अरुणा , एक टीस सी उठती है ,कुछ हर्फों में उतरती है. ...

वो एक दिन , वो एक कर्म ही काफी है 
मेरी हस्ती को मिटा देने के लिये 
तेरी ये मिल्कीयत मेरे ज़मीर पे भारी है 

के हम भी सीने में दिल रखते हैं 
जुबाँ खामोश है , फ़िज़ाँ भारी है 
तिल-तिल मरता हुआ मिट गया कोई 
मिट्टी में मिल गई सारी खुद्दारी है 

जो रँग भरते हैं गुलशन में 
मिट गए कब से वफ़ा , दीन-ईमान 
चुरा लिये हैं किसी ने मेरे सुबह-ओ-शाम 
चन्द साँसों का क़र्ज़ बाकी है 
ज़िन्दगी ने ये रात भी गुजारी है 

आईना किसको दिखाऊँ 
धड़कनों की भी उधारी है 
देखे तो तुझे भी शर्म आ जाये 
के तेरी करतूत ने ले ली मेरी उम्र सारी है 

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

रिश्ता ,ऐतबार का

एक माँ की नजर से....
मैंने बहुत चाहा कि 
बनूँ वो रिश्ता ,ऐतबार का 
वो छाँव आराम की 
वो गोद चैन की 
दुनिया से हताहत हो कर भी 
पाओ जहाँ तुम ,वो बाड़ हिफाज़त की 
कहीं कोई कमी न रहे 
मेरी हीरे की कनी 
गुमराह न हो जाना कभी 
दुनिया लुभाती है बहुत 
और रौंद के छोड़ जाती है वहीँ 
रखना वो नजर , जो देख पाये ये सब भी 
सबको देखना एक ही नजर से बेशक 
मगर व्यवहार में सबको निभाना होगा
हर रिश्ते का क़र्ज़ चुकाना होगा 
ऐतबार माँगने से नहीं मिलता कभी 
ऐतबार कमाना पड़ता है 
गुजरे हैं कभी हम भी उसी राह से 
धूप कितनी भी हो ,अपने हिस्से की छाया में बसर करना 
हो सके तो दूसरों के लिये भी छाया बुनना 
हाँ , रखना तुम ऊँचे इरादों पर अपनी नजर 
माँ की दुआओं ने बुना है आसमान 
तुम आ के उड़ानें भरना 

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

आज़ाद हो जाती हूँ

यूँ तो आम धारणा ये है कि लेखन निठल्ले लोगों का काम है। कहीं पढ़ा था कि जब सारी ऊर्जा केन्द्रित हो कर लेखन में उतर आती है , तभी कविता का जन्म होता है। इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि लेखक को एक दिशा मिल जाती है। दुनिया जानती है कि जो बात आम तौर पर नहीं कही जा सकती , वो कविता-गीत के माध्यम से बड़े प्रभावशाली तरीके से कही जा सकती है।
इतनी चुप 
के बर्फ का बूँद-बूँद बन कर , टपकना भी सुनाई दे 
नीरवता में खलल पड़े

ये वही जगह है ,
जहाँ अन्तस में उठता शोर ,मुझे जाता था दबाये 
जब और न कुछ बना सका वक्त मुझे 
तो दी लेखनी थमा 

अब मैं और मेरी लेखनी 
तमाम मुश्किलें , जज़्बात ,ख़्यालात 
लफ़्ज़ों में ढल उठते हैं 
और मैं आज़ाद हो जाती हूँ 
आज़ाद हो जाती हूँ , वक्त की गिरफ्त से भी 

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

पलकों पे है जो ठहरा

वाट्स एप पर ग्रुप बना कर कॉलेज के वक्त के साथियों से मिलाने का काम किया एक मित्र ने , चालीस साल का लम्बा अन्तराल ...अब चेहरों को पहचानने की कशम-कश जारी है ...

हम वैसे ही न मिलेंगे ,
जैसे जुदा हुये थे 

बरसों के फासले हैं ,
उम्र का भी है तकाज़ा 

जादू सा किसने फेरा ,
बदलीं हैं सारी शक्लें 

झाँकेगा वही चेहरा ,
पलकों पे है जो ठहरा 

वक़्त की है ये आँख-मिचोली ,
पलटे हैं पन्ने यादों ने 

दो कदम चले थे साथ ,
राहें बदल गईं थीं 

ख़्वाबों का कारवाँ भी ,
हमें ले के गया किधर 

बचपन की तरह छूटा ,
दौड़ा रगों में लेकिन 

छेड़ा है हवाओं ने ,
फिर से वही फ़साना 

किस चेहरे को किस से जोडूँ ,
यादों का मुँह मैं मोडूँ