गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बन्द थी मुट्ठी खाली ही

लम्हा लम्हा टूटे हम
देखो हमको मात मिली
है तो कहानी सबकी एक सी
बात नहीं बे बात मिली

कलम के काँधे पर सर रख कर
थोड़ा सा आराम मिला
सखी भी मिली , चारासाज मिला
दुनिया के पत्थरों से निजात मिली

किसने कहा दामन छोटा है
भर लेता आसमान भी
हर कोई अपनी बाहों में
दिल को न औकात मिली

रेत की तरह फिसले सब
बन्द थी मुट्ठी खाली ही
वक्त हवा न कैद हुए
उम्र की कैसी बिसात मिली

शह देने आया न कोई
दूर तलक आँखों ने देखा
कलम ही लौ को तीखा करती
थोड़ी सी सौगात मिली

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

पहचान नदारद है

पी के जिस घूँट को उड़ते हैं
वो घूँट नदारद है
जो भरती है क़दमों में दम
वो प्यास नदारद है
सींचे जाते हैं खुद को ही ,
देते हैं अर्घ्य जब , दूर खड़े उस सूरज को
पहचानी हुई है वो गर्मी
अरमाँ की हर बात नदारद है
छोड़ो छोड़ो क्या कहना है ,
हम चल लेते अपने दम पर , झाँका अन्दर
नाम लिखा उसी का है
अपनी भी पहचान नदारद है